संस्कृत श्लोक के माध्यम से जीवन, कर्म और नेतृत्व में विवेक की अहमियत रेखांकित

संस्कृत श्लोक के माध्यम से जीवन, कर्म और नेतृत्व में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय परंपरा में संतुलन और मर्यादा के महत्व पर जोर देते हुए संस्कृत श्लोक साझा किया।

 उन्होंने कहा कि जीवन और कार्यक्षेत्र में न अहंकार और न भय, बल्कि विवेक, धैर्य और संतुलित सोच से ही स्थायी सफलता विवेक की अहमियत रेखांकित

नई दिल्ली, 29 दिसंबर (हि.स.)। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय परंपरा में संतुलन और मर्यादा के महत्व को रेखांकित करते हुए एक गहन और प्रेरणादायक संदेश दिया है। उन्होंने संस्कृत के एक श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि जीवन हो या कार्यक्षेत्र, सफलता का मार्ग अतिशयता से नहीं बल्कि विवेक, धैर्य और संतुलित सोच से होकर गुजरता है। प्रधानमंत्री का यह संदेश ऐसे समय में सामने आया है, जब समाज, राजनीति और सार्वजनिक जीवन में संयम और मर्यादा की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक महसूस की जा रही है।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आधिकारिक सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर यह श्लोक साझा करते हुए भारतीय दर्शन की उस परंपरा की ओर ध्यान दिलाया, जो सदियों से मनुष्य को मध्य मार्ग अपनाने की सीख देती आई है। उन्होंने संकेत दिया कि न तो अत्यधिक अहंकार व्यक्ति को ऊँचाई तक ले जा सकता है और न ही भय या निराशा से भरा दृष्टिकोण किसी लक्ष्य को हासिल करने में सहायक होता है। संतुलन ही वह सूत्र है, जो व्यक्ति को स्थिरता, स्पष्टता और निरंतर प्रगति प्रदान करता है।

संस्कृत श्लोक में निहित गहरा संदेश

प्रधानमंत्री द्वारा साझा किया गया श्लोक इस प्रकार है—
“नात्युच्चशिखरो मेरुर्नातिनीचं रसातलम्।
व्यवसायद्वितीयानां नात्यपारो महोदधिः॥”

इस श्लोक का भावार्थ यह है कि न तो सुमेरु पर्वत अत्यधिक ऊँचा है और न ही पाताल अत्यधिक नीचा। कर्मशील और परिश्रमी लोगों के लिए महासागर भी अपार नहीं होता। यह विचार भारतीय जीवन-दर्शन की उस मूल भावना को उजागर करता है, जिसमें परिश्रम, धैर्य और संतुलन के बल पर असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री ने इस श्लोक के माध्यम से यह संदेश दिया कि चुनौतियाँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, यदि दृष्टि संतुलित और प्रयास निरंतर हों, तो कोई भी लक्ष्य दूर नहीं रहता।

जीवन और कार्यक्षेत्र में संतुलन की आवश्यकता

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संदेश में यह भी रेखांकित किया कि आधुनिक जीवन में अक्सर लोग या तो अत्यधिक आत्मविश्वास में बह जाते हैं या फिर असफलता के डर से कदम पीछे खींच लेते हैं। दोनों ही स्थितियाँ व्यक्ति की प्रगति में बाधक बनती हैं। संतुलन का अर्थ यह नहीं है कि महत्वाकांक्षा छोड़ दी जाए, बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि महत्वाकांक्षा को विवेक और मर्यादा के साथ साधा जाए। यही दृष्टिकोण व्यक्ति को दीर्घकालिक सफलता की ओर ले जाता है।

उन्होंने यह संकेत भी दिया कि नेतृत्व में बैठे लोगों के लिए संतुलन और मर्यादा और भी अधिक आवश्यक है, क्योंकि उनके शब्द और निर्णय समाज पर व्यापक प्रभाव डालते हैं। भारतीय परंपरा में राजा से लेकर साधारण नागरिक तक, सभी के लिए संयम को सर्वोच्च गुण माना गया है। प्रधानमंत्री का यह संदेश उसी परंपरा की आधुनिक व्याख्या के रूप में देखा जा रहा है।

भारतीय दर्शन और आधुनिक संदर्भ

प्रधानमंत्री मोदी लंबे समय से भारतीय संस्कृति, योग, वेदांत और प्राचीन ज्ञान परंपरा को आधुनिक संदर्भों से जोड़ते रहे हैं। इससे पहले भी वे कई अवसरों पर गीता, उपनिषद और संस्कृत साहित्य के उद्धरणों के माध्यम से जीवन प्रबंधन, नेतृत्व और सामाजिक मूल्यों की बात करते रहे हैं। इस बार भी उनका संदेश केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक जीवन से जुड़ा हुआ है।

आज के प्रतिस्पर्धी और तेज़ रफ्तार वाले समय में, जब सफलता को अक्सर केवल उपलब्धियों और आँकड़ों से मापा जाता है, प्रधानमंत्री का यह संदेश याद दिलाता है कि मानसिक संतुलन और नैतिक मर्यादा भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। बिना संतुलन के मिली सफलता क्षणिक हो सकती है, जबकि विवेक के साथ अर्जित उपलब्धियाँ स्थायी प्रभाव छोड़ती हैं।

समाज में संदेश की व्यापक प्रतिक्रिया

प्रधानमंत्री के इस संदेश को सोशल मीडिया पर व्यापक प्रतिक्रिया मिल रही है। शिक्षाविदों, युवाओं और सामाजिक चिंतकों ने इसे जीवन के हर क्षेत्र में लागू होने वाला विचार बताया है। कई लोगों ने इसे छात्रों, कर्मचारियों और नेतृत्वकारी भूमिकाओं में कार्यरत लोगों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में देखा है। यह संदेश न केवल व्यक्तिगत विकास, बल्कि सामाजिक सौहार्द और जिम्मेदार नागरिकता की भावना को भी मजबूत करता है।

संतुलन ही स्थायी प्रगति का आधार

प्रधानमंत्री मोदी का यह संदेश इस बात की याद दिलाता है कि भारतीय सभ्यता ने हमेशा मध्य मार्ग को अपनाने की सीख दी है। न अतिवाद, न निराशा—बल्कि संतुलित सोच, निरंतर प्रयास और मर्यादा के साथ आगे बढ़ना ही जीवन का सार है। संस्कृत श्लोक के माध्यम से दिया गया यह विचार आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना प्राचीन काल में था।

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