संसद और विधानसभाओं में हंगामे बनाम समाधान की राजनीति पर गंभीर प्रश्न

विपक्ष की भूमिका लोकतंत्र में उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सत्ता पक्ष की। लेकिन पिछले कई वर्षों से संसद और विधानसभाओं में जो व्यवहारिक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, वह कई सवाल खड़े करती है। अक्सर सत्र के दौरान विपक्ष का हंगामा, नारेबाज़ी और कार्यवाही ठप करना एक शक्ति-प्रदर्शन जैसा लगता है। यह संदेश देने की कोशिश कि “हम मजबूत हैं, हम लड़ रहे हैं”—पर क्या वाकई यह जनता के हितों को आगे बढ़ाता है?
यह प्रश्न लगातार बड़े होते जा रहे हैं।

यह सही है—देश को सकारात्मक समाधान की जरूरत है

जनता ने सांसदों और विधायकों को इसलिए नहीं चुना कि वे सिर्फ शोर मचाएं, बल्कि इसलिए चुना कि वे उनकी आवाज़ बनें।
यदि जनप्रतिनिधि—

  • अपने-अपने क्षेत्रों की गंभीर समस्याएं सदन में उठाएं,

  • उन्हें कार्यवाही में दर्ज कराएं,

  • और समाधान तक पहुँचने की ठोस पहल कराएं,

तो इसका प्रभाव केवल तात्कालिक नहीं बल्कि दीर्घकालिक होगा।

सवाल सरल है—क्या हम हंगामे से समाधान पा सकते हैं? शायद नहीं।

लॉन्ग-टर्म इम्पैक्ट तभी बनेगा जब मुद्दे समाधान तक पहुँचें

जब क्षेत्रीय समस्याएं सदन में उठती हैं, तो—

  • सरकार जवाबदेह होती है,

  • अधिकारी सक्रिय होते हैं,

  • और जनता को वास्तविक राहत मिलने का रास्ता खुलता है।

इसके उलट, जब पूरा सत्र केवल टकराव और हंगामे में चला जाता है, तो—

  • करोड़ों रुपये मिनटों की कार्यवाही पर खर्च होते हुए भी

  • परिणाम जनता तक नहीं पहुंचता।

पर जो दिखता है वह अक्सर यही होता है—
“हमने हंगामा किया, सरकार ने नहीं सुनी।”
नारा तेज़ होता है, समाधान कम।

एक व्यवहारिक सुझाव—सदन में संवाद-समाधान मॉडल अपनाया जाए

सदन का उद्देश्य केवल विरोध प्रकट करना नहीं, बल्कि समाधान खोजने का मंच होना चाहिए।
इसलिए—

  • क्षेत्रवार मुद्दे उठाए जाएँ—शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली, स्थानीय प्रशासन, रोजगार इत्यादि।

  • उन्हें कार्यवाही में दर्ज कराया जाए।

  • सत्ता पक्ष और विपक्ष साथ बैठकर समाधान निकालें।

  • सदन की गरिमा बनाए रखते हुए जनता की आवाज़ बनें।

जवाबदेही फंसाने से बेहतर है जवाबदेही के साथ समाधान में भागीदार बनना।

क्या ‘संवाद-समाधान मॉडल’ को बढ़ावा देने के लिए पहल होनी चाहिए?

हर सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक होती है।
वहीं सत्र खत्म होने के बाद यह बैठक अक्सर औपचारिकता भर रह जाती है।
पर सच्चाई यह है कि—
यदि इन्हीं बैठकों को मजबूती दी जाए,
और इन्हें क्रियान्वयन आधारित बनाया जाए,
तो देश की राजनीति का माहौल बहुत बदला जा सकता है।

यह पहल केंद्र में हो या राज्यों में—हर जगह इसकी जरूरत है।
और हाँ—
अगर जनता से पूछा जाए कि क्या वे समाधान आधारित राजनीति देखना चाहेंगे?
तो जवाब निश्चित रूप से—“हाँ” ही आएगा।

यह लेख संसद और विधानसभाओं के बदलते चरित्र पर एक ज़रूरी बहस उठाता है।
जनता चाहती है कि उसके प्रतिनिधि मिलकर काम करें—सिर्फ टकराव नहीं, समाधान लेकर आएँ।

✍️ चन्द्र किशोर शर्मा / वरिष्ठ पत्रकार
📍 स्वदेश ज्योति संवाददाता, लखनऊ


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