शिवकुमार विवेक

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यह बड़ा संयोग है कि भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी एक साथ आई है। ये दोनों वैचारिक दृष्टि से दो अलग-अलग और विपरीत ध्रुव हैं। संघ जहाँ एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है, वहीं कम्युनिस्ट एक राजनीतिक आंदोलन है, जो एक आर्थिक दर्शन के आधार पर खड़ा हुआ। एक विशुद्ध भारतीय विचार को लेकर चल रहा है, तो दूसरा एक पारदेशिक विचारधारा पर आधारित है। एक मायने में दोनों की तुलना नहीं हो सकती, किंतु दोनों ही भारतीय समाज से संवाद करते हैं और उसे गहराई तक प्रभावित करते हैं, इसलिए दोनों की प्रभावशीलता का आकलन करना समीचीन होगा, खासतौर पर तब जब दोनों भारत में अपनी सक्रियता के सौ वर्ष पूरे कर चुके हैं।

संस्थाओं का सौ साल पार करना अपने आप में महत्वपूर्ण होता है। इतनी जीवनशक्ति पाना कठिन और श्रमसाध्य है। इतने लंबे जीवनकाल में कुछ गलतियाँ होती हैं, कुछ प्रतिकूलताएँ आती हैं और कुछ अपरिहार्य परिवर्तन उनके अस्तित्व, उपादेयता और प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। भारत में कांग्रेस को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है, जो अपने लगभग 140 वर्षों के कालखंड में ऊर्जा खोती हुई नजर आती है। इसके कारणों के विस्तार में जाना यहाँ उचित नहीं है। यहाँ चर्चा कम्युनिस्ट आंदोलन और संघ की है।

चरित्र से संघ भी एक सामाजिक आंदोलन ही है, क्योंकि इसमें एक संस्था के गुणों से अधिक आंदोलन के लक्षण दिखाई देते हैं। इसका कोई लिखित विधान नहीं है और अपने स्वभाव में यह परिवार-संस्था के अधिक निकट है। संघ के स्वयंसेवक परिवार की तरह अनौपचारिक रूप से जुड़े होते हैं। संघ से जुड़ी सभी सहयोगी संस्थाओं को, जिन्हें संघ की भाषा में समविचारी संगठन कहा जाता है, ‘संघ परिवार’ कहा जाता है। संघ के एक प्रकाशन में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शून्य से विराट स्वरूप तक पहुँचने का प्रमुख कारण उसका पारिवारिक ढांचा है। परिवार परंपरा, कर्तव्य पालन, त्याग, सभी के कल्याण और सामूहिक पहचान के आधार पर चलता है। परिवार के हित में अपने हित का सहज त्याग तथा परस्पर आत्मीयता ही इसका आधार है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को नागपुर में हुई थी। भारतीय तिथिमान के अनुसार संघ विजयादशमी को अपना स्थापना दिवस मानता है। सौ वर्षों में यह संगठन देशव्यापी हो गया और इसकी शाखाएँ तथा सहयोगी संगठन दुनिया के कई देशों में फैल गए। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट आंदोलन ने 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति के बाद विश्वभर में विस्तार पाया। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 25 दिसंबर 1925 को हुई। इसके बाद सोवियत संघ सहित कई देशों में कम्युनिस्ट विचारधारा पर आधारित सरकारें बनीं और एक समय यह विचारधारा विश्व की सबसे शक्तिशाली मानी जाने लगी। किंतु सोवियत संघ के विघटन के बाद कम्युनिस्टों का प्रभाव लगातार सिमटता गया।

भारत में भी यह विचारधारा धीरे-धीरे कमजोर पड़ती गई और सत्ता या सत्ता की दावेदारी से बाहर होती चली गई। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भारतीय राजनीति में कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी प्रासंगिकता खोता नजर आ रहा है। जो पार्टी देश के पहले आम चुनाव में कांग्रेस के बाद दूसरे स्थान पर थी, उसकी उपस्थिति आज लोकसभा और विधानसभाओं में नगण्य रह गई है। पश्चिम बंगाल में सत्ता से बाहर होने के बाद केरल ही एकमात्र ऐसा राज्य बचा है, जहाँ कम्युनिस्ट सरकार है। आंकड़े बताते हैं कि बीस वर्ष पहले जहाँ कम्युनिस्ट दलों के 54 विधायक और लगभग 8 प्रतिशत वोट थे, वहीं आज यह संख्या सिमटकर छह विधायकों और करीब 3 प्रतिशत वोट तक रह गई है।

जहाँ वामपंथ सिमटता गया, वहीं कथित रूप से दक्षिणपंथी कहे जाने वाले संघ और उससे प्रेरित संगठन लगातार विस्तार करते गए। संघ स्वयं को लेफ्ट या राइट की परिभाषा में नहीं मानता, बल्कि स्वयं को सर्वसमावेशी मानता है। संघ पारंपरिक भारतीय व्यवस्था, सांस्कृतिक मूल्यों और ऐतिहासिक गौरव के आधार पर एक समर्थ राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने में लगा रहा। इसके लिए उसने समाज की शक्ति को ही अपनी शक्ति बनाया। संघ के प्रचारकों ने घर-घर जाकर समाज को जोड़ा, स्वयं त्याग और अनुशासन का जीवन अपनाया और बिना किसी पारिश्रमिक के कार्य किया।

इसके विपरीत, कम्युनिस्ट आंदोलन एक गैर-भारतीय विचारधारा पर आधारित होने के कारण समाज से समरसता नहीं बना सका। वर्ग संघर्ष की अवधारणा ने समाज को जोड़ने की बजाय विभाजन को बढ़ावा दिया। आजादी के बाद के दशकों में श्रमिक आंदोलनों और वैचारिक टकरावों ने देश को कई बार अस्थिर किया। धर्म और आस्था को नकारने की नीति भी भारतीय समाज के बड़े हिस्से को उनसे दूर ले गई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान की गई कई राजनीतिक भूलें भी कम्युनिस्ट आंदोलन पर भारी पड़ीं।

दूसरी ओर, जनसंघ से विकसित भारतीय जनता पार्टी ने धीरे-धीरे अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाई और केंद्र की सत्ता तक पहुँची। इसके पीछे संघ की सामाजिक जड़ों और संगठनात्मक शक्ति का बड़ा योगदान रहा। जिस संघ पर कई बार प्रतिबंध लगाए गए, वही संगठन समय के साथ और मजबूत होता गया। कांग्रेस और वाम दल जहाँ संघ से राजनीतिक स्तर पर टकराते रहे, वहीं संघ समाज में रचनात्मक कार्यों के माध्यम से अपनी स्वीकार्यता बढ़ाता रहा।

सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर संघ और कम्युनिस्ट आंदोलन का तुलनात्मक विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि भारतीय समाज में किस विचारधारा के लिए स्थान है और वह स्थान कैसे अर्जित किया जाता है।

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