आतंकवाद के आगे बेबस यूरोप: भारत के अनुभव से क्यों जरूरी है सबक लेना
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सभी पाठकों को क्रिसमस की असीम शुभकामनाएं। यह उत्सव अब किसी एक मजहब तक सीमित नहीं रहा है। चाहे ईसाई हो या गैर-ईसाई— सब इस पर्व का हिस्सा बनते हैं। लेकिन मेरा आज का कॉलम न तो इससे संबंधित मजहबी आस्था-सिद्धांतों पर केंद्रित है और न ही यह इस वैश्विक उत्सव की उत्पत्ति पर असहज प्रश्न उठाने के लिए लिखा गया है। यह लेख फ्रांस सहित कई यूरोपीय देशों की उन चिंताजनक घटनाओं पर आधारित है, जो पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चेतावनी है।
पेरिस— जो दशकों से शैंपेन, भीड़ और बेफिक्र आनंद का प्रतिबिंब है— उसकी चमक फीकी पड़ती जा रही है। इस नववर्ष की पूर्वसंध्या पर प्रसिद्ध ‘चैंप्स-एलिसीज’ नहीं होगा। पिछले साठ वर्षों से आधी रात को उमड़ने वाली भीड़ की जगह टीवी पर पहले से रिकॉर्ड किए गए कार्यक्रम का प्रसारण होगा, जिसका लुत्फ लोग अपने घरों में सुरक्षित अनुभव करते हुए उठाएंगे। गत वर्ष इस संगीत समारोह में करीब दस लाख लोग जुटे थे। फ्रांसीसी मीडिया द्वारा उद्धृत एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार, बीते नववर्ष पर अप्रवासी उपद्रवियों ने जिस तरह एक हजार गाड़ियां फूंक डाली थी, जिसके आरोप में 420 लोग हिरासत में भी लिए गए थे— वैसी ही अराजकता की आशंका इस बार भी है।
इसी तरह जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े सार्वजनिक प्रसारणकर्ता जेडडीएफ के अनुसार, उसके देश में क्रिसमस पर लगाए गए बाजारों में आयोजक अतिरिक्त सुरक्षा बढ़ा रहे है और जो समूह आतंकवाद-रोधी नियमों की अवहेलना कर रहे है, उनका पंजीकरण तत्काल प्रभाव से रद्द किया जा रहा हैं। ऐसे ही ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में नववर्ष की आतिशबाजी का कार्यक्रम भी बॉन्डी बीच पर हुए भीषण आतंकवादी हमले के बाद रद्द कर दिया गया है, जिसमें 15 निर्दोष लोगों की जान चली गई थी।
क्यों यूरोप में क्रिसमस और नववर्ष के आयोजन सीमित या रद्द किए जा रहे हैं? आखिर भय का माहौल कौन बना रहा है? फ्रांसीसी मीडिया में मैनहैटन इंस्टीट्यूट के आप्रवासन सदस्य डैनियल डी मार्टिनो के हवाले से कहा गया है, “स्पष्ट है कि यह यूरोप में बिना समुचित जांच के बड़े पैमाने पर मुस्लिम प्रवासन का परिणाम है।” यह घटनाक्रम एक ऐसे गहरे संकट को उजागर करता है, जिसमें तथाकथित ‘उदार’ समाज स्वयं ही अपने विनाश की पटकथा लिख रहा है। भारत इस कड़वे अनुभव का साक्षी है। अपने कई पूर्ववर्ती आलेखों में मैंने भारत के इस्लाम से सदियों पुराने संपर्क, देश के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान-बांग्लादेश से मिल रही चुनौतियों का विस्तार से उल्लेख किया है। संक्षेप में कहे, तो भारतीय अनुभव स्थापित करता है कि आतंकवाद और मजहबी कट्टरता के सामने झुकने से स्थायी शांति नहीं मिलती; बल्कि इससे उनकी रक्त की प्यास और बढ़ जाती है। दुर्भाग्य से और शायद भारी कीमत चुकाकर देर-सवेर फ्रांस और शेष यूरोप को यह सबक सीखना पड़ेगा।
फ्रांस में अभी मुस्लिम आबादी लगभग 60 लाख (अधिकांश शरणार्थी) है, जो कुल जनसंख्या का करीब 9 प्रतिशत है। इतिहास साक्षी है कि जब मुसलमान नए क्षेत्रों में ‘आक्रमणकारी’, ‘अतिथि’, ‘प्रवासी’ या ‘शरणार्थी’ के रूप में आते हैं, तो समय के साथ इसका एक वर्ग मेजबान समाज को अपनी मजहबी अवधारणाओं के अनुरूप बदलने की कोशिश करता है। वे स्थानीय संस्कृति, पारंपरिक पर्वों, सामाजिक मानदंडों और उदार-स्वतंत्र मानवाधिकारों का विरोध करते है। उनके द्वारा कई अवसरों पर शरीयत को सर्वोपरि ढांचे के रूप में स्थापित करने का भी प्रयास होता है। यूरोप के कई देशों में ऐसा ही परिदृश्य देखने को मिलता है। ब्रिटेन का रोदरहैम कांड, जोकि ‘ग्रूमिंग गैंग स्कैंडल’ के नाम से जाना जाता है— इसी संस्थागत विफलता का भयावह रूप है। इसमें प्रवासी मुस्लिमों ने 1500 से अधिक गैर-मुस्लिम लड़कियों (अधिकांश श्वेत) को अपनी हवस का शिकार बनाया था।
फ्रांस सहित कई यूरोपीय देश लंबे समय से इस्लामी आतंकवाद का सामना कर रहे है। मई 2014 में, सीरिया से आए फ्रांसीसी जिहादी मेहदी नेमूश ने ब्रुसेल्स के यहूदी संग्रहालय में चार लोगों की हत्या कर दी। जनवरी 2015 में, शरीफ और सईद आदि जिहादियों ने पेरिस में चार्ली हेब्दो कार्यालय पर हमले करके 12 लोगों को मार डाला। सबसे घातक हमला 13 नवंबर 2015 को हुआ, जब अब्देलहमीद और सलाह आदि आतंकियों ने पेरिस में एक साथ गोलीबारी और विस्फोट करके 130 निरपराधों को मौत के घाट उतार दिया। 14 जुलाई 2016 को मोहम्मद लहुआइज-बुहलेल ने नीस में ट्रक से कुचलकर 86 लोगों को मार दिया। 16 अक्टूबर 2020 को पेरिस में एक 18 वर्षीय शरणार्थी ने एक शिक्षक की गला रेतकर हत्या कर दी। ऐसी जिहादी घटनाओं की एक लंबी सूची है, जो केवल फ्रांस तक ही सीमित नहीं है।
जर्मनी के मैगडेबर्ग में 21 दिसंबर 2024 को 50 वर्षीय सऊदी डॉक्टर तालेब अब्दुल जव्वाद ने क्रिसमस पर खरीदारी कर रही भीड़ पर अपनी बीएमडब्ल्यू चढ़ा दी। इस हमले में पांच लोगों (बच्चा सहित) की मौत हुई और करीब 200 लोग घायल हुए। इस वर्ष दो अक्टूबर को ब्रितानी नागरिक जिहाद अल-शामी ने हीटन पार्क सिनेगॉग के पास पैदल चल रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी और एक व्यक्ति को चाकू मार दिया, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। तीन साल पहले ब्रिटेन के लेस्टर और बर्मिंघम में स्थानीय मुस्लिम समूहों ने हिंदू घरों और मंदिरों पर योजनाबद्ध हमले किए थे। यह मजहबी हिंसा यूरोप तक सीमित नहीं है। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया भी इसके दंश झेल रहे है। इस पृष्ठभूमि में पेरिस प्रशासन द्वारा अपने पांरपरिक पर्वों से समझौता करना— जिहादियों के समक्ष घुटने टेकने जैसा है।
इस्लाम के नाम पर बार-बार आतंकवाद क्यों होता है? इसे लेकर जिहादियों से सहानुभूति रखने वाले आमतौर पर दो तर्क देते हैं। पहला— अशिक्षा और दूसरा— कथित ‘अन्याय’ का प्रतिशोध। लेकिन यह दोनों ही तथ्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। सच तो यह है कि इस्लामी आतंकवाद की जड़े उस विषैली मानसिकता में मिलती है, जिसमें इसे मजहबी वैधता प्राप्त होने का दावा किया जाता है। जब भी इसपर ईमानदार चर्चा होती हैं, तो उसे ‘इस्लामोफोबिया’ बताकर खारिज कर दिया जाता है। ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त माहौल में क्या आतंकवाद से लड़ने का कोई भी प्रयास सफल हो सकता है?
स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक है।
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