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डिजिटल अरेस्ट का खौफ: साइबर ठगी कैसे पढ़े-लिखे और वरिष्ठ लोगों को तोड़ रही है
पंजाब के पूर्व आईजी जैसे अनुभवी, पढ़े-लिखे और प्रशासनिक तंत्र को भीतर से जानने वाले व्यक्ति का डिजिटल अरेस्ट जैसे साइबर फ्रॉड में फंसना और आत्महत्या का प्रयास करना समाज को झकझोर देने वाला प्रसंग है। यह घटना केवल एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं, बल्कि हमारे डिजिटल युग की सामूहिक असफलता का संकेत है। पिछले दो वर्षों में 3000 करोड़ से ज्यादा की ठगी इस माध्यम से हो चुकी है और न जाने कितने ही बेगुनाह जान तक दे चुके हैं।
इंदौर में बुज़ुर्ग महिला से 30 लाख की ठगी, जबलपुर में 72 वर्षीय रिटायर्ड कर्मचारी से 21.5 लाख की ठगी, छिंदवाड़ा में बुज़ुर्ग को डेढ़ घंटे “ऑनलाइन कैद” रखे जाने की घटना, भोपाल में रिटायर्ड भेल अधिकारी दंपत्ति से 68 लाख की ठगी— ये सभी मामले लोगों के जहन में ताजा हैं, जहां साइबर अपराधियों ने दंपत्ति को करीब 70 दिन तक डिजिटल अरेस्ट में रखा था।
डिजिटल अरेस्ट अपराध से अधिक एक मनोवैज्ञानिक युद्ध होता है। यह कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक सुनियोजित मानसिक आतंक है। ठग कानून, जांच एजेंसियों, सीबीआई, ईडी, पुलिस और अदालत जैसे शब्दों का भय पैदा करते हैं। वे पीड़ित को यह विश्वास दिला देते हैं कि वह किसी गंभीर अपराध में फँस चुका है, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा, करियर और परिवार सब कुछ खतरे में है। यहां ठगी केवल पैसों की नहीं होती, बल्कि सम्मान, आत्मविश्वास और मानसिक संतुलन की भी होती है।
अक्सर यह सवाल उठता है कि पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोग ही क्यों ऐसे जाल में फँसते हैं। इसके पीछे गहरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं। संभ्रांत वर्ग के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा सबसे बड़ी पूंजी होती है और ठग इसी बिंदु पर हमला करते हैं कि यदि बात बाहर गई तो छवि खत्म हो जाएगी। कानूनी शब्दावली, धाराओं और फर्जी अधिकारियों का आतंक ऐसा माहौल बनाता है कि व्यक्ति तर्क से नहीं, बल्कि भय से निर्णय लेने लगता है। उच्च पदों पर रहे लोग कई बार यह मान लेते हैं कि वे ठगी का शिकार नहीं हो सकते और यही आत्मविश्वास सतर्कता को कमजोर कर देता है। डिजिटल अरेस्ट के दौरान पीड़ित को परिवार से बात न करने, फोन न काटने और अकेले रहने का दबाव बनाया जाता है, जिससे सामाजिक सहारा टूट जाता है और मानसिक कमजोरी गहराती जाती है।
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि डिजिटल अरेस्ट पीड़ित को इस हद तक तोड़ देता है कि उसे जीवन से बाहर निकलना ही समाधान लगने लगता है। यह स्थिति दर्शाती है कि हमारा समाज आज भी मानसिक स्वास्थ्य को कमजोरी मानता है, सहायता मांगने को अपमान समझता है और गलती को जीवन की अंतिम हार मान लेता है। यह सोच किसी भी सभ्य समाज के लिए बेहद खतरनाक है।
यह केवल अपराधियों की चालाकी का मामला नहीं है। साइबर अपराध को लेकर पर्याप्त और सरल जन-जागरूकता का अभाव, डिजिटल साक्षरता को केवल तकनीकी ज्ञान तक सीमित रखना और त्वरित सहायता तंत्र की कमजोर दृश्यता भी इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार हैं। समाज को यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि कोई भी जांच एजेंसी फोन या वीडियो कॉल पर गिरफ्तारी नहीं करती और डिजिटल अरेस्ट जैसी कोई कानूनी प्रक्रिया अस्तित्व में ही नहीं है। डर की स्थिति में परिवार या किसी भरोसेमंद व्यक्ति से संवाद ही पहला और सबसे जरूरी कदम होना चाहिए।
मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना भी उतना ही आवश्यक है। यह समझना होगा कि प्रतिष्ठा से बड़ा जीवन है और कानून से बड़ा सच। वरिष्ठ नागरिकों और पूर्व अधिकारियों के लिए विशेष जागरूकता अभियान जरूरी हैं, क्योंकि ठग जानते हैं कि यही वर्ग भय और प्रतिष्ठा-बोध से सबसे अधिक संचालित होता है।
पंजाब के पूर्व आईजी की घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि डिजिटल अपराधी अब केवल जेब नहीं, बल्कि जीवन पर हमला कर रहे हैं। आज आवश्यकता है कि हम तकनीक के साथ-साथ मानसिक साहस, सामाजिक संवाद और संवेदनशीलता को भी सशक्त करें, क्योंकि कोई भी पद, शिक्षा या अनुभव मानव को भय से पूरी तरह मुक्त नहीं कर सकता। जब भय हावी हो जाए, तो समाज का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति को थामे, न कि उसे टूटने दे। इस डर को खत्म करना ही समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
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