उमेश चतुर्वेदी
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वरिष्ठ पत्रकार
समय का पहिया चलता रहता है। समय के चाक पर हर आगत पल वर्तमान बनता है और फिर अतीत के गोद में समा जाता है। जाते-जाते वह अपनी छाप ही नहीं छोड़ता, कुछ सीख भी दे जाता है। अतीत से प्राप्त अनुभव और सीख की कसौटी पर वह वर्तमान को कसता है और चाहता है कि आने वाला पल अतीत की तुलना में बेहतर गुजरे। मनुष्य की चाहत ऐसी ही होती है। वक्त के पहिये पर सब मन मुताबिक ही घटे-चले तो फिर जीवन चक्र का रोमांच ही खत्म हो जाए। फिर भी मानव की फितरत है, वह आगत को अपने हिसाब से ही घटित होते देखना और भोगना चाहता है। लेकिन क्या ऐसा हो पाता है?
अतीत की घटनाएं और भविष्य के नतीजे आने वाले दिनों पर अपना असर जरूर डालते हैं। इसी वजह से राजनीति हर बार आने वाली घटनाओं के प्रति कुछ ज्यादा ही सचेत रहने की कोशिश करती है, उसे अपने हिसाब से घटित करने का प्रयास करती रहती है। महज दो दिनों बाद ग्रेगोरियन कैलेंडर के पन्ने नए हो जाएंगे। इस नए साल में भी राजनीति चुनावी रणनीति बनाने और उन चुनावों से अपने मन मुताबिक नतीजे हासिल करने की कोशिश में जुटी रहेगी।
इस नए यानी साल 2026 में देश के प्रमुख पांच राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इन चुनावों की आहट में राजनीति की दुनिया की पेशानियों पर बल पड़ने लगे हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। इसकी वजह है कि इन राज्यों के चुनाव नतीजे तय करेंगे कि आने वाले दिनों में राजनीति की दिशा क्या होगी। इनके नतीजे ही तय करेंगे कि आने वाले दिनों में कमल खिलता रहेगा या हाथ को भारत का साथ मिलेगा। इन नतीजों पर ही निर्भर करेगा कि भारत का भावी नेतृत्व कैसा होगा।
यूं तो हर राज्य के विधानसभा चुनाव अपने आप में अहम होते हैं, लेकिन साल 2026 में होने वाले चुनाव बेहद खास होने जा रहे हैं। असम में विगत दो बार से भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। पिछले विधानसभा चुनाव में यहां की 126 सीटों में से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने 75 सीटें जीती थीं। जिनमें भारतीय जनता पार्टी के खाते में 60 सीटें गई थीं, वहीं उसकी सहयोगी असम गणपरिषद को नौ और अन्य सहयोगी दलों को छह सीटें मिली थीं। जबकि कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन को 50 सीटों पर संतोष करना पड़ा था।
कांग्रेस ने यहां की जिम्मेदारी अपने तेजतर्रार नेता गौरव गोगोई को दी है, जबकि बीजेपी की अगुआई मुख्यमंत्री हिमंत विश्वसरमा के हाथ है। विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर के बाद राज्य की मतदाता सूची से 10.56 लाख मतदाताओं के नाम हटाए जा चुके हैं। कांग्रेस की पूरी कोशिश बीजेपी के हाथ से सत्ता छीनने की है तो बीजेपी की कोशिश उत्तर-पूर्व के इस सबसे बड़े राज्य में अपने झंडे को गाड़े रखना है। अगर बीजेपी बनी रही तो उत्तर-पूर्व के बहाने उसका राष्ट्रवादी सोच का कारवां बढ़ता रहेगा, लेकिन अगर कांग्रेस सेंध लगाने में सफल रही तो उससे इलाके में कांग्रेसी आधार को जुटाने को बल मिलेगा।
असम से सटे पश्चिम बंगाल में भी असम की तरह बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा गर्म है। राज्य के पिछले विधानसभा चुनाव में 294 सदस्यीय विधानसभा में 213 सीटों पर जीत हासिल करके ममता बनर्जी ने सनसनी फैला दी थी, जबकि सत्ता की दावेदार मानी जा रही बीजेपी को महज 77 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। इस बार एसआईआर के चलते राज्य के 7.66 करोड़ मतदाताओं में से 56 लाख के नाम हटाए जा चुके हैं। इसके अलावा चुनाव आयोग को करीब 20 लाख मतदाता अब भी संदिग्ध लग रहे हैं।
आयोग के लिहाज से ये मतदाता पहली बार पंजीकृत हुए हैं और इनकी उम्र पैंतालिस साल और उससे ज्यादा है। सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में मतदाता अगर राज्य के हैं तो वे अब तक कहां थे और उन्होंने वोटर लिस्ट में नाम क्यों नहीं डलवाया था, और अगर राज्य से बाहर थे तो अचानक ही वे यहां क्यों लौट आए। जाहिर है कि इन नए वोटरों और हटाए गए नाम वाले वोटरों की संख्या को लेकर संदेह की स्थिति है। इसे लेकर तृणमूल कांग्रेस जहां आक्रामक है, वहीं बीजेपी नए जुड़े करीब 20 लाख संदिग्ध वोटरों को लेकर जवाबी तौर पर हमलावर है।
एक दौर में पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल की ख्याति वामपंथ के गढ़ के रूप में रही है। लेकिन विगत दो चुनावों से यहां वामपंथी किला बचा हुआ है। इसे उलटबांसी ही कहेंगे कि केंद्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ खड़ा केरल का वामपंथ कांग्रेस के साथ है, लेकिन राज्य में उसकी लड़ाई कांग्रेस के ही साथ है। हाल ही में हुए नगर निकाय चुनावों में बीजेपी ने राज्य की राजधानी तिरुवनंतपुरम पर कब्जा कर लिया है।
केरल की ही तरह पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में भी बीजेपी तीसरा कोना बनने की कोशिश में जुटी हुई है। राज्य की 234 सीटों वाली विधानसभा में पिछली बार डीएमके वाले मोर्चे को 133 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार बीजेपी अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन में उतरकर डीएमके को चुनौती देने की तैयारी में है। अगर बीजेपी दक्षिण के इन राज्यों में मजबूत उपस्थिति बनाने में सफल रहती है तो उसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी साफ दिखेगा।
मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि अगर असम में बीजेपी अपनी स्थिति बनाए रखती है, बंगाल के किले पर सेंध लगाती है और तमिलनाडु व केरल में अहम उपस्थिति दर्ज कराती है तो माना जाएगा कि उसका राजनीतिक अश्वमेध आगे भी दौड़ता रहेगा। लेकिन अगर वह ऐसा करने में नाकाम रही तो उसकी भावी राजनीति प्रभावित होगी और कांग्रेसी खेमा नए उत्साह के साथ उभर सकता है।
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