सूक्ष्म जीवाणु: जीवन का आधार
पृथ्वी पर समस्त जीवन का आधार सूक्ष्म जीवाणु हैं। ये केवल रोग उत्पन्न करने वाले कारक नहीं हैं, बल्कि अधिकांश सूक्ष्म जीवाणु जीवनदायिनी भूमिका निभाते हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें “प्रोबायोटिक्स” कहता है, जबकि वैदिक ग्रंथों में इन्हें “मरुद्गण” के नाम से जाना जाता है। वैदिक साहित्य में इन जैविक सूक्ष्माणुओं का वर्णन पदार्थ विद्या के अंतर्गत किया गया है।
वेदों के अनुसार, मरुद्गण एक संगठित सेना की भांति कार्य करते हैं, जो आधुनिक सूक्ष्म विज्ञान (माइक्रोबायोलॉजी) में वर्णित माइक्रोब्स के व्यवहार से मेल खाता है। ये सूक्ष्म जीवाणु अकेले कार्य नहीं करते, बल्कि एक समूह के रूप में संगठित होकर विभिन्न जैव प्रक्रियाओं को संचालित करते हैं।
वैदिक ग्रंथों में मरुद्गणों का उल्लेख
1. उपजाऊ भूमि के निर्माण में मरुद्गणों की भूमिका
यजुर्वेद के मंत्र (17/1) में मरुद्गणों की जैविक उपजाऊ भूमि की संरचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख मिलता है। वेद कहते हैं कि ये मरुद्गण पर्वतों की चट्टानों में विद्यमान खनिज पदार्थों को विघटित करके नूतन उपजाऊ मृदा (वर्जिन सॉइल) का निर्माण करते हैं। साथ ही, खनिज पदार्थों के रस को वनस्पतियों की जड़ों तक पहुँचाकर उनके औषधीय गुणों को बढ़ाते हैं। यह सिद्धांत आधुनिक माइक्रोबायोलॉजी के उस सिद्धांत से मेल खाता है, जो बताता है कि सूक्ष्म जीवाणु चट्टानों को विघटित कर मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैं।
2. मरुद्गणों की संख्या और संरचना
यजुर्वेद (17/2) में मरुद्गणों की संख्या 1032 बताई गई है, जो आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक माइक्रोबायोलॉजी द्वारा अनुमानित सूक्ष्माणुओं की संख्या के समान है। यह दर्शाता है कि वैदिक ऋषियों को सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व और उनकी विस्तृत भूमिका का गहन ज्ञान था।
3. चरम परिस्थितियों में मरुद्गणों की उपस्थिति
यजुर्वेद (17/4) में बताया गया है कि मरुद्गण समुद्र तल पर स्थित ज्वालामुखीय क्षेत्रों में भी पाए जाते हैं। यह आधुनिक विज्ञान के उस तथ्य से मेल खाता है, जिसमें थर्मोफिलिक माइक्रोब्स (उच्च तापमान में जीवित रहने वाले सूक्ष्म जीव) की उपस्थिति समुद्र तल पर पाई गई है।
इसी प्रकार, यजुर्वेद (17/5) में उल्लेख मिलता है कि मरुद्गण अत्यंत ठंडे क्षेत्रों, जैसे बर्फ से ढके स्थानों में भी मौजूद हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें “क्रायोफिलिक माइक्रोब्स” के रूप में पहचानता है।
वैदिक विज्ञान और आधुनिक माइक्रोबायोलॉजी का सामंजस्य
वैदिक ग्रंथों में वर्णित मरुद्गणों की विशेषताएँ आधुनिक विज्ञान के कई सिद्धांतों से मेल खाती हैं। ये केवल जैव प्रौद्योगिकी, सूक्ष्म जीव विज्ञान और रोगाणुओं की अवधारणा तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि ये पदार्थ और जीवन के आपसी संबंध को भी स्पष्ट करते हैं।
वेदों के अनुसार, मरुद्गण केवल सजीव तत्वों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि निर्जीव पदार्थों (ऑर्गेनिक और इनऑर्गेनिक) के साथ भी गहरा संबंध रखते हैं। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ आधुनिक विज्ञान अभी पूर्ण रूप से नहीं पहुँचा है।
वैदिक ज्ञान में वर्णित मरुद्गणों और आधुनिक माइक्रोबायोलॉजी के बीच उल्लेखनीय समानता पाई जाती है। भारतीय ज्ञान परंपरा ने हजारों वर्ष पूर्व ही यह समझ लिया था कि सूक्ष्म जीवाणु पृथ्वी पर जीवन का आधार हैं।
आज के वैज्ञानिक अनुसंधान भी इस तथ्य को प्रमाणित कर रहे हैं कि सूक्ष्म जीवाणु न केवल जीवन के पोषण में सहायक हैं, बल्कि पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वैदिक ग्रंथों में वर्णित मरुद्गणों के विस्तृत अध्ययन से हमें आधुनिक विज्ञान को एक नई दिशा देने में सहायता मिल सकती है।
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