नई दिल्ली। सोशल मीडिया की दुनिया में बच्चों की बढ़ती भागीदारी को लेकर चिंतित एक एनजीओ द्वारा दाखिल याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई से इनकार कर दिया है। याचिका में 13 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने और 13 से 18 वर्ष तक के किशोरों के लिए अभिभावकों की अनुमति को अनिवार्य बनाने की अपील की गई थी। लेकिन जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने साफ कहा कि यह एक नीतिगत मामला है, जिस पर निर्णय लेना कार्यपालिका का अधिकार है।
नीति में हस्तक्षेप नहीं करेगा न्यायालय
पीठ ने याचिकाकर्ता से कहा कि अगर वह वास्तव में इस मुद्दे को लेकर गंभीर है, तो केंद्र सरकार से संपर्क कर सकते हैं। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि नीतिगत निर्णयों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप उचित नहीं माना जाता। इसलिए जेप फाउंडेशन की याचिका को प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर दिया गया।
क्या थी याचिका की मुख्य मांगें?
एनजीओ जेप फाउंडेशन द्वारा दाखिल याचिका में सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों को रेखांकित करते हुए कई अहम बिंदु उठाए गए थे:
- 13 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया से पूरी तरह दूर रखने की मांग।
- 13 से 18 साल के किशोरों के लिए माता-पिता की पूर्व सहमति अनिवार्य करने का आग्रह।
- सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को उम्र सत्यापन के लिए बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण जैसी पुख्ता व्यवस्था लागू करने की सलाह।
- सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा यदि दिशानिर्देशों का पालन न किया जाए, तो उन पर जुर्माना लगाने की सिफारिश।
याचिकाकर्ता ने डाटा सुरक्षा विधेयक में संशोधन की भी की थी मांग
याचिका में यह भी कहा गया था कि ड्राफ्ट डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन रूल्स में ऐसा प्रावधान जोड़ा जाए, जिससे बच्चों के डेटा की सुरक्षा सुनिश्चित हो और अभिभावक उनके सोशल मीडिया अकाउंट्स की निगरानी कर सकें। याचिकाकर्ता का दावा था कि कम उम्र में सोशल मीडिया की पहुंच से बच्चों पर मानसिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ रहे हैं।
सरकार के पाले में गेंद
अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया है, यह स्पष्ट है कि इस मुद्दे को कानूनी के बजाय प्रशासनिक स्तर पर सुलझाया जाएगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या केंद्र सरकार भविष्य में बच्चों की सोशल मीडिया पहुंच पर किसी प्रकार की नीतिगत पहल करती है या नहीं।
स्वदेश ज्योति के द्वारा।
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