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April 19, 2025 2:09 AM

“उर्दू किसी धर्म की नहीं, बल्कि गंगा-जमुनी तहजीब की पहचान है” — सर्वोच्च न्यायालय की ऐतिहासिक टिप्पणी

उर्दू किसी धर्म की नहीं, बल्कि गंगा-जमुनी तहजीब की पहचान है” — सर्वोच्च न्यायालय की ऐतिहासिक टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा: ‘भाषा का कोई धर्म नहीं होता, यह संस्कृति और सभ्यता का आईना है’

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया है कि उर्दू भाषा को केवल किसी धर्म से जोड़ कर देखना सरासर गलत है। न्यायमूर्ति सुधांशु धुलिया की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि उर्दू हमारी भारतीय गंगा-जमुनी तहजीब का उत्कृष्ट प्रतीक है और यह यहीं की उपज है। इसे किसी विशेष धर्म या समुदाय की भाषा कहना न केवल वास्तविकता के विरुद्ध है, बल्कि भारत की विविधता में एकता की मूल भावना का भी अपमान है।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का संदर्भ

यह टिप्पणी महाराष्ट्र के अकोला जिले के पटूर कस्बे से जुड़ी एक याचिका की सुनवाई के दौरान आई। दरअसल, एक पूर्व पार्षद ने याचिका दाखिल की थी, जिसमें नगरपालिका के साइन बोर्डों पर मराठी के साथ-साथ उर्दू में भी जानकारी दिए जाने पर आपत्ति जताई गई थी।

याचिकाकर्ता का कहना था कि उर्दू में साइन बोर्ड लिखना अनुचित है और यह केवल मराठी में ही होने चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि उर्दू में जानकारी देने का उद्देश्य लोगों की सुविधा है, न कि किसी धर्म विशेष का प्रचार।

“भाषा धर्म से ऊपर होती है” — न्यायालय

न्यायमूर्ति धुलिया ने कहा,

“भाषा किसी धर्म की बपौती नहीं होती। यह संस्कृति, सभ्यता, लोगों और उनकी सोच का परिचय देती है। भारत जैसे बहुभाषी देश में हमें हर भाषा का आदर करना चाहिए।”

उर्दू: शायरी से जनता तक

कोर्ट ने यह भी कहा कि उर्दू केवल एक भाषा नहीं, बल्कि एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा की संवाहक है। मीर, ग़ालिब, फ़ैज़, साहिर, जोश और जौन जैसे कवियों और शायरों ने इसी भाषा में अपनी बातों को जन-जन तक पहुँचाया।
कोर्ट ने कहा कि अगर किसी इलाके की बहुसंख्यक आबादी उर्दू समझती है, तो साइन बोर्ड पर उसका प्रयोग जनहित में है।

लोकतंत्र में बहुभाषिता की स्वीकृति

कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि लोकतंत्र का मूल मंत्र है – अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुँचाना। यदि एक नगर पालिका यह तय करती है कि वह बहुभाषी साइन बोर्ड लगाकर अपनी बात को अधिक प्रभावी ढंग से लोगों तक पहुँचा सकती है, तो यह एक स्वागत योग्य कदम है, न कि आलोचना योग्य।

सांस्कृतिक समरसता का संदेश

सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी को देशभर में भाषाई समरसता और सांस्कृतिक एकता के संदर्भ में एक मजबूत संदेश के रूप में देखा जा रहा है। यह फैसला न सिर्फ उर्दू भाषा के सम्मान को पुनःस्थापित करता है, बल्कि यह भी बताता है कि भारत की पहचान उसकी विविधता में ही निहित है।



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