राष्ट्रपति रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई, अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों की भूमिका पर उठा सवाल
नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय में मंगलवार से एक बेहद अहम संवैधानिक बहस की शुरुआत हुई। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए रेफरेंस पर पाँच सदस्यीय संविधान पीठ सुनवाई कर रही है। यह रेफरेंस इस बात से जुड़ा है कि राज्यपाल जब विधेयकों को राष्ट्रपति या अपने पास विचार के लिए भेजते हैं, तो अनुच्छेद 200 के अंतर्गत उनके पास उपलब्ध संवैधानिक विकल्प क्या-क्या हैं और वे किन सीमाओं तक उनका प्रयोग कर सकते हैं।
मामला क्यों है अहम?
हाल के वर्षों में कई राज्यों में यह आरोप लगे कि राज्यपाल विधेयकों को लंबे समय तक लंबित रख देते हैं। तमिलनाडु का मामला इसका प्रमुख उदाहरण है, जहाँ राज्यपाल पर आरोप था कि उन्होंने राज्य सरकार द्वारा पारित कई विधेयकों को महीनों तक बिना किसी निर्णय के रोककर रखा। इस पर उच्चतम न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने यह टिप्पणी की थी कि यदि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक रोकते हैं, तो यह संविधान की भावना के खिलाफ है। अब इसी पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्ट राय मांगी है।

अदालत की प्रारंभिक टिप्पणियाँ
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने अटार्नी जनरल आर. वेंकटरमणी से पूछा कि यदि राज्यपाल वर्षों तक विधेयक को लंबित रख दें तो संवैधानिक तौर पर इसका समाधान क्या होना चाहिए। कोर्ट ने यह भी सवाल किया कि क्या इस स्थिति में स्वतः ही यह मान लिया जाए कि राज्यपाल ने विधेयक को मंजूरी दे दी है?
अटार्नी जनरल ने जवाब में कहा कि अदालत स्वयं राज्यपाल का अधिकार अपने हाथ में नहीं ले सकती और न ही यह निर्णय दे सकती है कि राज्यपाल की चुप्पी को स्वीकृति माना जाए। यह संविधान के ढांचे से बाहर होगा। हालांकि, उन्होंने यह स्वीकार किया कि यह एक बेहद जटिल और विकट स्थिति है, जिसका समाधान केवल संवैधानिक व्याख्या से ही संभव है।
न्यायाधीशों की राय
सुनवाई के दौरान जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा ने कहा कि पिछला निर्णय संभवतः विशेष परिस्थितियों में दिया गया होगा, लेकिन अब वह अन्य मामलों के लिए नजीर बन चुका है। इस पर अटार्नी जनरल ने कहा कि दो सदस्यीय पीठ का निर्णय समीक्षा योग्य है और संविधान पीठ को इसे व्यापक दृष्टिकोण से देखना होगा।
मुख्य न्यायाधीश ने यह भी टिप्पणी की कि पिछली सुनवाईयों में बार-बार यह कहा गया कि राज्यपाल ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का पालन नहीं किया। उन्होंने साफ किया कि संविधान की मूल भावना यह है कि राज्यपाल, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन बना रहना चाहिए।
14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय
राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से कुल 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। इनमें प्रमुख प्रश्न यह है कि क्या राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखें या उन्हें वापस भेजने व राष्ट्रपति के पास भेजने की प्रक्रिया में भी समयसीमा तय की जानी चाहिए।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
यह पहला अवसर नहीं है जब राष्ट्रपति ने किसी संवैधानिक प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगी है। इससे पहले सतलुज-यमुना लिंक नहर विवाद को भी तत्कालीन राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को रेफर किया था। अदालत ने तब विस्तृत सुनवाई के बाद अपनी राय दी थी, जो आगे चलकर विवाद के समाधान की दिशा में अहम साबित हुई।
आगे की कार्यवाही
इस मामले की अगली सुनवाई 20 अगस्त को होगी। न्यायालय ने केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर अपना पक्ष रखने के लिए कहा है। संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस ए.एस. चंदुरकर और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा शामिल हैं।
यह सुनवाई केवल तमिलनाडु या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर पूरे देश की संघीय संरचना पर पड़ेगा। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस पर कोई ठोस व्याख्या देता है, तो भविष्य में राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच होने वाले टकराव को रोकने में मदद मिलेगी। साथ ही विधायी प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और समयबद्ध बनाने की दिशा में भी यह एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।