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बेंगलुरु/नई दिल्ली, 24 सितंबर (हि.स.)। कन्नड़ साहित्य के एक विराट स्तंभ और दार्शनिक विचारधारा के वाहक प्रख्यात उपन्यासकार डॉ. सन्तेशिवरा लिंगन्नैया भैरप्पा का बुधवार को बेंगलुरु के एक अस्पताल में हृदय गति रुकने से निधन हो गया। वे 94 वर्ष के थे और उन्हें राष्ट्रोत्थान (राजराजेश्वरी नगर) अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहाँ दोपहर करीब 2:38 बजे उनका निधन हुआ।

भैरप्पा के निधन की सूचना ने साहित्यिक जगत और पाठक समुदाय में भारी शोक फैला दिया है। प्रधानमंत्री ने भी उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा कि भैरप्पा ने अपने चिंतन और लेखन के माध्यम से भारत की आत्मा को भीतर तक झकझोर दिया और उनकी रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेंगी। अनेक साहित्यिक संस्थान, विश्वविद्यालय और लेखक इस क्षति पर शोक व्यक्त कर रहे हैं और श्रद्धांजलि सभा आयोजित करने की घोषणा कर चुके हैं।

डॉ. भैरप्पा का जीवन और लेखन भारतीय उपन्यास के परिदृश्य में विशिष्ट रहा। उनका जन्म 20 अगस्त 1931 को कर्नाटक के हासन जिले के सन्तेशिवरा गाँव में हुआ था। कठिन बचपन और सामाजिक परिवेश के बावजूद भैरप्पा ने दर्शनशास्त्र में अध्ययन किया और बाद में शिक्षक और शोधकर्ता के रूप में भी कार्य किया। उनके उपन्यासों में परंपरा और आधुनिकता के बीच खिंचाव, मानव मन का गहन विवेचन और सामाजिक-दार्शनिक प्रश्नों का चिंतन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है; यही वजह है कि उनके साहित्य ने केवल कन्नड़ भाषी पाठकों तक ही सीमित न रहकर अनुवादों के माध्यम से देश के अन्य हिस्सों में भी गहरा प्रभाव डाला।

उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ—जिनका साहित्यिक और सांस्कृतिक असर व्यापक रहा—में ‘वंशवृक्ष’, ‘दातु’, ‘गृहभंग’, ‘पर्‍व’, ‘मंदरा’ और ‘भित्ती’ शामिल हैं। इन कृतियों को कई भारतीय भाषाओं में अनूदित किया गया और कुछ पर फिल्म व नाटक रूपांतरण भी हुए, जिससे उनका प्रभाव और अधिक विस्तृत हुआ। भैरप्पा को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई सम्मानों से नवाज़ा गया; इनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान के साथ-साथ 2016 में पद्म श्री और 2023 में पद्म भूषण जैसे राष्ट्रीय सम्मान शामिल हैं।

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स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों के बीच भी भैरप्पा ने देर तक लेखन का धागा नहीं छोड़ा और समय-समय पर उनकी रचनाएँ सार्वजनिक विमर्श का केंद्र बनी रहती थीं। उनके लेखन का स्वर अक्सर विवादस्पद रहा — कुछ आलोचक उनके विचारों पर तीखे तर्क करते रहे — पर यह विवाद भी उनके काम की गहनता और विचारोत्तेजकता का ही एक प्रमाण था। विद्वानों का कहना है कि भैरप्पा ने उपन्यास को सिर्फ कहानी कहने का माध्यम नहीं रहने दिया बल्कि उसे दार्शनिक और सांस्कृतिक विमर्श का एक मंच बना दिया।

डॉ. भैरप्पा के निधन पर कर्नाटक के राजनैतिक और साहित्यिक अभिभारियों ने भी संवेदनाएँ व्यक्त की हैं और विभिन्न संस्थान उनके साहित्यिक योगदान को समर्पित कार्यक्रमों और स्मरण सभाओं की घोषणा कर रहे हैं। छात्र, शोधकर्ता और पाठक उनके विचारों और रचनात्मक दृष्टि से जुड़े रहे हैं; अब यह विरासत अगली पीढ़ियों को पुस्तकों, अध्ययन और शोध के माध्यम से उपलब्ध रहेगी। उनके परिवार और समीपस्थों के प्रति गहरी सहानुभूति व्यक्त की जा रही है और देश के साहित्यिक परिदृश्य में उनकी अनुपस्थिति लंबी खलिश बनाए रखेगी।