‘वंदेमातरम्’ की प्रेरणा से ‘स्व’ के आधार पर राष्ट्र निर्माण में सक्रिय हों: आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले

नई दिल्ली, 1 नवंबर। राष्ट्रगीत ‘वंदेमातरम्’ के 150 वर्ष पूरे होने के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने इसे भारत की राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक पहचान और एकात्म भाव का प्रतीक बताया। संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि वंदेमातरम् केवल एक गीत नहीं, बल्कि वह महामंत्र है जिसने भारत के स्वाधीनता आंदोलन को दिशा दी और करोड़ों देशवासियों के हृदय में राष्ट्रप्रेम की ज्वाला प्रज्वलित की।

सरकार्यवाह ने कहा कि आज जब समाज में क्षेत्र, भाषा और जाति के आधार पर विभाजन की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, ऐसे समय में ‘वंदेमातरम्’ समाज को एकता के सूत्र में बांधने का सामर्थ्य रखता है। उन्होंने सभी नागरिकों से आह्वान किया कि “वंदेमातरम् की प्रेरणा को प्रत्येक हृदय में जागृत करते हुए ‘स्व’ के आधार पर राष्ट्र निर्माण के कार्य में सक्रिय होना चाहिए।”

वंदेमातरम् – राष्ट्र की आत्मा का गान

होसबाले ने कहा कि वंदेमातरम् केवल देशभक्ति का गीत नहीं बल्कि राष्ट्र की आत्मा की ध्वनि है। यह गीत मातृभूमि की आराधना और उसकी समग्र चेतना का प्रतीक है। उन्होंने कहा, “वंदेमातरम् अपने दिव्य प्रभाव के कारण आज भी समाज को राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना से ओतप्रोत करने की सामर्थ्य रखता है। यह हर भारतीय के हृदय में समान रूप से गूंजता है — चाहे वह किसी भी क्षेत्र, भाषा या समाज से जुड़ा हो।”

उन्होंने कहा कि भारत के हर आंदोलन, हर संघर्ष और हर बलिदान में वंदेमातरम् का स्वर सुनाई देता रहा है। बंग-भंग आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता संग्राम तक, यह गीत लाखों क्रांतिकारियों का घोष बना रहा।

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बंकिमचंद्र और रविंद्रनाथ ठाकुर को श्रद्धांजलि

सरकार्यवाह ने इस अवसर पर ‘वंदेमातरम्’ के रचयिता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और इसे स्वरबद्ध करने वाले राष्ट्रकवि रविंद्रनाथ ठाकुर को नमन किया। उन्होंने कहा कि “1875 में रचित यह गीत 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में जब पहली बार रविंद्रनाथ ठाकुर ने सस्वर गाया, तब इसने पूरे राष्ट्र को आत्मबोध कराया कि भारत केवल एक भूभाग नहीं, बल्कि एक माता है।”

उन्होंने कहा कि यह वही गीत है जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को भावनात्मक शक्ति दी और जन-जन के बीच राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रबल किया।

वंदेमातरम् – स्वतंत्रता संग्राम का घोष मंत्र

होसबाले ने अपने संदेश में कहा कि “वंदेमातरम् केवल गीत नहीं, यह भारत के स्वाभिमान और स्वतंत्रता का उद्घोष है। जब अंग्रेजी शासन के समय भारत का मनोबल टूट रहा था, तब इस गीत ने हर भारतीय को खड़ा होने की ताकत दी।”

उन्होंने बताया कि देश के अनेक महापुरुषों ने ‘वंदेमातरम्’ को अपने जीवन का मंत्र बना लिया था। महर्षि अरविंद, मैडम भीकाजी कामा, महाकवि सुब्रमण्यम भारती, लाला हरदयाल, और लाला लाजपत राय जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने पत्रों, पत्रिकाओं और संगठनों के नाम में “वंदेमातरम्” शब्द जोड़ लिया था।

महात्मा गांधी स्वयं अपने पत्रों और संदेशों का समापन “वंदेमातरम्” से किया करते थे। यह दर्शाता है कि यह गीत केवल शब्द नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा की गूंज है।

‘स्व’ की अवधारणा और राष्ट्र निर्माण

दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि आज जब देश 21वीं सदी के आत्मनिर्भर भारत की दिशा में अग्रसर है, तब हमें अपने ‘स्व’ — अर्थात् अपने मूल, अपनी संस्कृति और अपने मूल्यबोध — को पहचानना होगा। उन्होंने कहा कि “वंदेमातरम् की प्रेरणा हमें यही सिखाती है कि राष्ट्र निर्माण का आधार केवल भौतिक विकास नहीं, बल्कि आत्मिक चेतना भी होनी चाहिए।”

उन्होंने कहा कि भारत की शक्ति उसकी विविधता में है, और इस विविधता को एक सूत्र में बांधने का कार्य केवल सांस्कृतिक भाव से ही संभव है। “वंदेमातरम् वह सूत्र है जो भारत को आत्मा से जोड़ता है,” उन्होंने कहा।

समाज से आह्वान

सरकार्यवाह ने अपने संदेश में सभी स्वयंसेवकों और नागरिकों से आह्वान किया कि वे ‘वंदेमातरम्’ के 150 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक भाग लें। उन्होंने कहा, “यह अवसर केवल उत्सव का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और संकल्प का भी है। हमें संकल्प लेना होगा कि हम भारत की एकता, अखंडता और सांस्कृतिक गौरव की रक्षा के लिए सदैव सक्रिय रहेंगे।”

उन्होंने कहा कि इस गीत के भावों को हृदयंगम करना और उसे अपने आचरण में उतारना ही सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्ति है।

एकता, संस्कृति और आत्मसम्मान का प्रतीक

संघ के अनुसार, ‘वंदेमातरम्’ आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में था। यह गीत हर भारतीय को यह स्मरण कराता है कि राष्ट्र सर्वोपरि है, और प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने “स्व” के बल पर राष्ट्र के उत्थान में योगदान दे।

‘वंदेमातरम्’ के 150 वर्ष केवल एक गीत की वर्षगांठ नहीं, बल्कि उस भावना का उत्सव हैं जिसने भारत को एक राष्ट्र के रूप में खड़ा किया।