राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए संवैधानिक सवालों पर बड़ी सुनवाई | जानिए 14 अहम मुद्दे
नई दिल्ली। देश की सर्वोच्च अदालत अब एक ऐसे संवैधानिक सवाल पर विचार करेगी, जो न सिर्फ राज्यों और केंद्र के संबंधों को परिभाषित करता है, बल्कि विधायिका और कार्यपालिका की भूमिका को लेकर भविष्य की दिशा भी तय करेगा। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। यह ऐतिहासिक मामला भारतीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली के कई संवेदनशील पहलुओं को सामने लाने वाला है।

संविधान पीठ का गठन और सुनवाई की अगली तारीख
प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता में बनी पांच सदस्यीय संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस ए.एस. चंदुरकर और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा शामिल हैं। अदालत ने अगली सुनवाई की तारीख 29 जुलाई तय की है। इससे पहले सभी पक्षों को अपना जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए गए हैं।
क्या है मामला?
राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए रेफरेंस में पूछा गया है कि जब राज्यपालों के समक्ष विधानसभा द्वारा पारित विधेयक प्रस्तुत किए जाते हैं, तो वे किन संवैधानिक विकल्पों पर विचार कर सकते हैं? क्या वे मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे होते हैं? और क्या उनके फैसलों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है? इन सवालों का उत्तर भारतीय संघीय ढांचे के संतुलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
पृष्ठभूमि: तमिलनाडु का मामला बना संदर्भ
इस संवैधानिक बहस की पृष्ठभूमि में हाल ही में तमिलनाडु राज्य का मामला है, जिसमें राज्यपाल द्वारा विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को लंबे समय तक रोके रखा गया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जे.बी. पारदीवाला की अध्यक्षता वाली बेंच ने स्पष्ट निर्देश देते हुए कहा था कि राज्यपाल को विधेयकों पर अधिकतम एक महीने में निर्णय लेना चाहिए। यदि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो तीन महीने के भीतर उस पर भी निर्णय लिया जाना चाहिए। यह निर्देश अब समूचे देश में लागू दृष्टिकोण बन सकता है।
राष्ट्रपति ने पूछे ये 14 सवाल
राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से पूछे गए 14 सवाल भारतीय संघीय व्यवस्था, विधायी प्रक्रिया और संवैधानिक व्याख्या से जुड़े हैं। इनमें मुख्यतः यह पूछा गया है कि:
- क्या राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने की कोई समयसीमा तय की जा सकती है?
- क्या वे मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना निर्णय ले सकते हैं?
- क्या उनके फैसलों की न्यायिक समीक्षा संभव है?
- क्या अनुच्छेद 361 उन्हें न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह छूट देता है?
- क्या राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 201 के तहत लिए गए फैसलों पर भी अदालत समीक्षा कर सकती है?
- क्या सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 142 के तहत इन संवैधानिक प्रावधानों में दिशा-निर्देश दे सकता है?
इन सवालों में यह भी पूछा गया है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या से जुड़े मुद्दों को बड़ी पीठ को भेजने की प्रक्रिया पर भी कोई व्यवस्था तय कर सकता है?

संभावित असर और महत्त्व
यह रेफरेंस भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या को स्पष्ट करने का मौका देगा। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस पर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश देता है, तो इससे देशभर में राज्यपालों द्वारा विधेयकों को अनिश्चितकाल के लिए रोके रखने की प्रवृत्ति पर लगाम लग सकती है। इससे न केवल विधायिका की गरिमा बढ़ेगी, बल्कि सरकारों की जवाबदेही भी सुनिश्चित होगी।
यह मामला न केवल तकनीकी कानूनी व्याख्या तक सीमित है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र की आत्मा को छूता है। राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदों की भूमिका क्या हो, और उन्हें किस हद तक स्वतंत्रता या प्रतिबंध हो, यह फैसला भविष्य की राजनीतिक संस्कृति और प्रशासनिक दक्षता को दिशा देगा। सुप्रीम कोर्ट की यह सुनवाई भारतीय संविधान की कार्यप्रणाली के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है।