October 22, 2025 4:33 PM

उन्नीसवीं शताब्दी की प्रथम बलिदानी वीरांगना: रानी चेन्नम्मा

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रानी चेन्नम्मा जयंती विशेष: उन्नीसवीं शताब्दी की पहली बलिदानी वीरांगना, जिसने अंग्रेजों से लोहा लिया

रानी चेन्नम्मा जयंती (23 अक्टूबर) पर विशेष लेख
✍️ डॉ. आनंद सिंह राणा

जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता।” — यह अमर वाक्य इतिहास के पन्नों में आज भी गूंजता है। यह वह घोषणा थी, जिसने उन्नीसवीं शताब्दी की भारत भूमि पर स्त्री-शौर्य की ज्योति प्रज्वलित की। यह कथन था कित्तूर की वीरांगना रानी चेन्नम्मा का — भारत की प्रथम महिला योद्धा जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह की मशाल सबसे पहले जलाई।

रानी चेन्नम्मा न केवल दक्षिण भारत की, बल्कि पूरे देश की महिलाओं के लिए साहस और स्वाभिमान का प्रतीक बनीं। उन्होंने यह साबित किया कि भारत की बेटियां केवल घर-आंगन तक सीमित नहीं हैं, बल्कि जब बात देश की अस्मिता की हो, तो वे रणभूमि में भी शत्रु से टक्कर लेने में सक्षम हैं।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर 1778 को कर्नाटक के उत्तर बेलगांव जिले के काकती गांव में हुआ था। बचपन से ही वे असाधारण प्रतिभा और साहस से परिपूर्ण थीं। तलवारबाजी, घुड़सवारी और तीरंदाजी में निपुण चेन्नम्मा को गांव के लोग “शेरनी” कहकर पुकारते थे। मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह कित्तूर राज्य के राजा मल्लसारजा देसाई से हुआ। विवाहोपरांत उन्होंने राज्य की प्रजा के हित में प्रशासनिक कार्यों में दक्षता दिखाई।

लेकिन विधि को कुछ और मंजूर था। 1816 में पति की मृत्यु के बाद वे विधवा हो गईं। एकमात्र पुत्र के सहारे वे राज्य की जिम्मेदारी संभालती रहीं, किंतु 1824 में पुत्र की भी असामयिक मृत्यु ने उनके जीवन को गहरे शोक में डाल दिया। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने एक दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित किया, पर ब्रिटिश सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया।


अंग्रेजों की व्यपगत नीति और युद्ध का आरंभ

ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी “व्यपगत की नीति” (Doctrine of Lapse) के तहत कित्तूर रियासत को अपने साम्राज्य में मिलाने की कोशिश की। उस समय धारवाड़ जिले के कमिश्नर चॅपलीन ने रानी को आदेश दिया कि वे अपना राज्य अंग्रेजों को सौंप दें। रानी ने दृढ़ता से इंकार कर दिया और कहा —
कित्तूर की मिट्टी अंग्रेजों के अधीन नहीं जाएगी।

इसके बाद ब्रिटिश अफसर ठाकरे ने कित्तूर पर हमला किया। रानी चेन्नम्मा ने अपने वीर सैनिकों के साथ मोर्चा संभाला और अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी। इस संघर्ष में ठाकरे मारा गया और ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। यह भारतीय इतिहास का वह क्षण था जब एक महिला शासक ने अंग्रेजी सत्ता को झकझोर दिया।


12 दिन तक चला शौर्यपूर्ण संघर्ष

रानी चेन्नम्मा ने 12 दिनों तक लगातार अंग्रेजों से युद्ध किया। उनके साहस और रणनीति ने दुश्मनों को हिला दिया। लेकिन विश्वासघात ने उन्हें पराजय की ओर धकेल दिया। उनके ही कुछ साथियों ने बारूद में कीचड़ और गोबर मिलाकर तोपों को निष्क्रिय कर दिया। इस गद्दारी का परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने किला घेर लिया और रानी को बंदी बना लिया गया।

उन्हें बैलहोंगल के किले में आजीवन कारावास दिया गया। वहां उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्ष ईश्वर-भक्ति, ग्रंथ-पाठ और ध्यान में बिताए। 1829 में रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया, लेकिन उनका नाम अमर हो गया।


प्रेरणा और प्रभाव

रानी चेन्नम्मा ने भले ही युद्ध में विजय प्राप्त न की हो, पर उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उन्होंने भारतीय महिलाओं में आत्मसम्मान और स्वतंत्रता की भावना जगाई। उनकी वीरता से प्रेरित होकर दक्षिण भारत की कई अन्य महिलाओं ने भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाज उठाई।

कर्नाटक में आज भी उनका नाम शौर्य की देवी के रूप में लिया जाता है। उनके जीवन पर कई नाटक, कविताएं और लोकगीत रचे गए हैं। ग्रामीण गायन परंपराओं में आज भी “कित्तूर रानी” के वीरगाथा गीत गाए जाते हैं जो स्वतंत्रता संग्राम की भावना को जीवित रखते हैं।


उपेक्षित इतिहास और पुनर्स्मरण की आवश्यकता

दुखद यह है कि हमारे तथाकथित “मुख्यधारा” इतिहासकारों ने रानी चेन्नम्मा जैसी वीरांगनाओं को भुला दिया। सोलहवीं शताब्दी की रानी अब्बक्का चौटा, अठारहवीं शताब्दी की वेलु नचियार, और उन्नीसवीं शताब्दी की रानी चेन्नम्मा — इन तीनों ने अंग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र उठाए, पर इन्हें इतिहास के पन्नों में समुचित स्थान नहीं दिया गया।

आज आवश्यकता है कि इन महान वीरांगनाओं को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम योद्धाओं के रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियां समझ सकें कि भारत की स्वतंत्रता केवल पुरुषों की देन नहीं, बल्कि वीरांगनाओं के साहस और बलिदान से भी सजी है।


रानी चेन्नम्मा आज भी भारत की हर बेटी के लिए प्रेरणा हैं — कि जब अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना हो, तो न किसी की ताकत की जरूरत होती है, न किसी की अनुमति की। बस संकल्प चाहिए, जो रानी चेन्नम्मा की रगों में खून बनकर बहता था।



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