दक्षिण में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बहादुर सेनानी रानी अब्बक्का
पांच सौवीं जयंती देश भर में धूमधाम से मनाने की तैयारी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बेंगलुरू में आयोजित प्रतिनिधि सभा में यह घोषणा की गई है कि दक्षिण भारत की वीरांगना रानी अब्बक्का की 500वीं जयंती पूरे देश में धूमधाम से मनाई जाएगी। इस घोषणा के बाद अब इतिहास के पन्नों में छुपी इस बहादुर रानी की वीरता, स्वाभिमान और बुद्धिमत्ता की कहानियां फिर से चर्चा में आ गई हैं।
वीरता की अनसुनी गाथा
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उत्तर भारत में साहस और संघर्ष की प्रतीक मानी जाती हैं, लेकिन उनसे लगभग 300 साल पहले कर्नाटक की रानी अब्बक्का चौटा ने औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ जबरदस्त संघर्ष किया था। उनकी बहादुरी के कारण ही उन्हें ‘अभया रानी’ के नाम से जाना गया। वह उन गिने-चुने भारतीय शासकों में से थीं, जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ सबसे पहले संघर्ष किया।
उल्लाल की महान रानी
रानी अब्बक्का को कर्नाटक के उल्लाल में विशेष रूप से याद किया जाता है। उनकी स्मृति में हर वर्ष ‘वीर रानी अब्बक्का उत्सव’ आयोजित किया जाता है, जहां ‘वीर रानी अब्बक्का प्रशस्ति’ पुरस्कार किसी अद्वितीय महिला को प्रदान किया जाता है। वर्ष 2003 में डाक विभाग ने उनके सम्मान में एक विशेष डाक कवर भी जारी किया था। अब, बेंगलुरू में उनकी कांस्य प्रतिमा स्थापित होने के बाद लोग हवाई अड्डे और नौसैनिक पोत का नाम भी उनके नाम पर रखने की मांग कर रहे हैं।
लोककथाओं में अमर रानी
रानी अब्बक्का की वीरता की कहानियां आज भी लोक साहित्य और परंपराओं में जीवित हैं। कर्नाटक में लोकसंगीत और यक्षगान जैसे नाट्य रूपों में उनकी गाथा सुनाई जाती है। ‘भूटा कोला’ नामक नृत्य रूप में भी उनकी वीरता को दर्शाया जाता है। उन्हें ‘अग्निबाण’ का उपयोग करने वाली अंतिम योद्धा माना जाता है।
रानी अब्बक्का का संघर्ष
रानी अब्बक्का चौटा तुलुनाडु (तटीय कर्नाटक) के चौटा राजवंश से थीं। उन्होंने 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों के खिलाफ युद्ध छेड़ा। 1555 में जब पुर्तगाली सेना ने गोवा पर कब्जा कर लिया और मंगलौर बंदरगाह को निशाना बनाया, तो उनके सामने उल्लाल की रानी अब्बक्का सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ी हो गईं।
पुर्तगालियों ने कई बार उल्लाल पर आक्रमण किया, लेकिन रानी ने हर बार उन्हें परास्त कर दिया। उनकी रणनीति इतनी प्रभावी थी कि पहली बार भेजे गए पुर्तगाली सैनिक वापस ही नहीं लौटे। जब पुर्तगालियों ने एडमिरल डॉम अल्वेरो डा सिलवीरा के नेतृत्व में बड़ी सेना भेजी, तब भी रानी ने उसे धूल चटा दी।
पुर्तगालियों ने जब मंगलौर बंदरगाह पर कब्जा कर लिया, तब उन्होंने उल्लाल के किले पर हमला किया। वे यह सोचकर जश्न मना रहे थे कि उन्होंने किला जीत लिया, लेकिन तभी रानी अब्बक्का अपनी 200 सैनिकों की सेना के साथ उन पर टूट पड़ी। पुर्तगाली जनरल और कई सैनिक मारे गए, जबकि कई को बंदी बना लिया गया।
अंततः धोखे से मिली हार
रानी अब्बक्का की वीरता से घबराए पुर्तगालियों ने उनके ही पति लक्षमप्पा को धन देकर उन्हें पकड़वाने के लिए मना लिया। रानी को पकड़कर जेल में डाल दिया गया, लेकिन वहां भी उन्होंने विद्रोह किया और युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं।
इतिहास में उपेक्षित लेकिन अमर
रानी अब्बक्का ने लगभग चार दशकों तक पुर्तगालियों के हमलों का बहादुरी से सामना किया। हालांकि, उनके संघर्ष का विस्तृत विवरण इतिहास में दर्ज नहीं किया गया, लेकिन जो भी उपलब्ध है, उससे उनके अद्वितीय साहस और तेजस्विता का परिचय मिलता है।
अब उनकी 500वीं जयंती के अवसर पर, उनका नाम और उनकी वीरता देशभर में फिर से चर्चा का विषय बन गई है। कर्नाटक में उनके नाम पर सड़कें, मूर्तियां और उत्सव आयोजित किए जा रहे हैं, जिससे नई पीढ़ी भी इस वीरांगना के अद्भुत संघर्ष और शौर्य से प्रेरणा ले सके।
स्वदेश ज्योति के द्वारा
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