✍️ डॉ. विश्वास चौहान
प्रस्तावना
मनुष्य का जीवन कर्म और उसके परिणामों पर आधारित है। सनातन धर्म के शास्त्रों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। लेकिन प्रश्न उठता है कि यदि हम अपने पूर्व जन्म के कर्मों को भूल चुके हैं, तो हमें उनके आधार पर दंडित क्यों किया जाता है? इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए पिता और पुत्र के बीच हुए संवाद को इस लेख में फीचर आर्टिकल के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
कर्मों की गति और ब्रह्मवैवर्त पुराण का संदर्भ
ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्पष्ट किया गया है:
“अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। ना भुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटि शतैरपि।।”
अर्थात, किसी भी कर्म को भोगे बिना उसका अंत नहीं होता, चाहे करोड़ों कल्प बीत जाएं। अच्छे कर्म पुण्य के रूप में सुख देते हैं, जबकि बुरे कर्म पाप के रूप में दुख लेकर आते हैं। लेकिन यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि यदि व्यक्ति अपने पूर्व जन्मों के कर्मों को याद नहीं रखता, तो वह उनके दंड का पात्र क्यों बनता है?
पुत्र का तर्क: न्याय और ईश्वरीय व्यवस्था
पुत्र का प्रश्न बिल्कुल तार्किक था –
- यदि वर्तमान न्याय प्रणाली में भी अपराधी को उसके अपराध का प्रमाण दिखाया जाता है, तो ईश्वर हमें पूर्व जन्म के कर्मों का स्मरण क्यों नहीं कराते?
- यदि ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, तो मनुष्य अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी कैसे हुआ?
पुत्र की इन शंकाओं का समाधान करने के लिए पिता ने मीमांसा दर्शन का सहारा लिया।
मीमांसा दर्शन और कर्म का सिद्धांत
मीमांसा हिन्दू दर्शनों में से एक महत्वपूर्ण दर्शन है, जिसे महर्षि जैमिनी ने स्थापित किया। इसके अनुसार, “यथा लोके तथा वेदे” – जैसा लोक में होता है, वैसा ही वेद में भी कहा गया है। अर्थात, कर्मों की तुलना बीज से की जा सकती है।
कर्मों के फल की समयावधि: बीज और वृक्ष का उदाहरण
पिता ने कर्मों की गति को समझाने के लिए एक उदाहरण दिया:
यदि कोई एक साथ कई बीज बोता है, तो उनके अंकुरण और फलन का समय अलग-अलग होता है:
- पालक कुछ ही दिनों में उगकर समाप्त हो जाती है।
- आम का पेड़ कई वर्षों बाद फल देता है।
- आंवला और अमरूद और भी अधिक समय लेते हैं।
इसी प्रकार कुछ कर्मों का फल तत्काल मिलता है, जैसे – लड्डू खाने से मिठास मिलती है या आग को छूने से जलन होती है। लेकिन कुछ कर्मों के परिणाम वर्षों बाद आते हैं। दान, तप, यज्ञ, स्वाध्याय, और ध्यान जैसे कर्मों के फल धीरे-धीरे मिलते हैं। इसी कारण कुछ कर्मों का फल अगले जन्म में भी प्राप्त हो सकता है।
कर्म की स्वतंत्रता और भगवान की भूमिका
लोक में यह भ्रांति फैली हुई है कि “भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता”, लेकिन शास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते। गीता में स्पष्ट कहा गया है –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
अर्थात, कर्म करने का अधिकार मनुष्य के पास है, लेकिन उसके फल का नहीं।
दुष्कर्म और ईश्वर की न्याय व्यवस्था
यदि यह मान लिया जाए कि भगवान ही सभी कर्म करवाते हैं, तो दुनिया की सभी अदालतें बंद करनी पड़ेंगी, क्योंकि फिर हर अपराध भगवान की मर्जी से हुआ माना जाएगा।
- क्या भगवान किसी से अपराध करवाएंगे?
- क्या ईश्वर चार साल की बच्ची से बलात्कार करवाएंगे?
- क्या माता-पिता को घर से निकालने का पाप भी भगवान करवाएंगे?
यह असंभव है। मनुष्य अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। भगवान केवल कर्मों का फल प्रदान करते हैं, वह उन्हें करवाते नहीं हैं।
संक्षेप में, यह कहना गलत होगा कि मनुष्य अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं है। कर्म एक बीज की तरह हैं, जो अपने समय पर फल देते हैं। कुछ का परिणाम तत्काल मिलता है, कुछ का वर्षों बाद और कुछ का अगले जन्म में। न्याय का सिद्धांत यही कहता है कि मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। यही सनातन धर्म की कर्म सिद्धांत पर आधारित गहरी और तार्किक व्यवस्था है।
“कर्मणा गति अति गहनो” – कर्मों की गति को पूरी तरह समझ पाना अत्यंत कठिन है, लेकिन इसका अस्तित्व शाश्वत सत्य है।