भारतीय विज्ञापन जगत ने खो दिया अपनी पहचान का प्रतीक, चार दशक तक ओगिल्वी में दी सेवाएं
‘अबकी बार मोदी सरकार’ का नारा देने वाले विज्ञापन गुरु पीयूष पांडे का निधन, 70 वर्ष की आयु में ली अंतिम सांस
नई दिल्ली, 24 अक्टूबर। भारतीय विज्ञापन जगत की रचनात्मकता, सादगी और जनभाषा के प्रतीक पीयूष पांडे का 70 वर्ष की आयु में गुरुवार रात मुंबई में निधन हो गया। उनके निधन की पुष्टि उद्योगपति सुहेल सेठ ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर की। उन्होंने लिखा— “भारत ने सिर्फ एक महान विज्ञापन दिमाग नहीं, बल्कि एक सच्चे देशभक्त और बेहद विनम्र इंसान को खो दिया है।”
पीयूष पांडे वह नाम हैं जिन्होंने भारतीय विज्ञापन जगत को उसकी अपनी भाषा और आत्मा दी। 1955 में जयपुर में जन्मे पांडे का जीवन संघर्षों और सादगी से भरा रहा, लेकिन उन्होंने अपने रचनात्मक दृष्टिकोण और स्वदेशी भावनाओं से विज्ञापन जगत को वह दिशा दी, जिसने भारतीय बाजार की पहचान ही बदल दी।

ओगिल्वी में सफर की शुरुआत, हिंदी में विज्ञापन की नई भाषा गढ़ी
साल 1982 में मात्र 27 वर्ष की उम्र में ओगिल्वी एंड माथर (Ogilvy India) से जुड़कर पीयूष पांडे ने विज्ञापन जगत में कदम रखा। उस दौर में विज्ञापन अंग्रेज़ी के प्रभाव में हुआ करते थे, लेकिन पांडे ने पहली बार भारतीय बोली, हंसी और भावनाओं को विज्ञापन की भाषा बनाया।
उन्होंने एशियन पेंट्स के लिए “हर खुशी में रंग लाए”, कैडबरी के लिए “कुछ खास है” और फेविकोल के लिए भावनाओं से जुड़ा विज्ञापन अभियान तैयार किया, जिसने भारतीय दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी। हच (अब वोडाफोन) के विज्ञापन ‘यू एंड आई’ में उनकी सादगी और भावना की पहचान साफ झलकी।
‘अबकी बार मोदी सरकार’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे नारों से बनाई नई पहचान
पीयूष पांडे ने न केवल ब्रांड्स के लिए बल्कि राजनीतिक अभियानों में भी अपनी छाप छोड़ी। 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए उन्होंने “अबकी बार मोदी सरकार” और “अच्छे दिन आने वाले हैं” जैसे प्रभावशाली नारे दिए। इन नारों ने देश के हर कोने में राजनीतिक संवाद की भाषा बदल दी।
उनके ही निर्देशन में ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ और ‘हर घर कुछ कहता है’ जैसे सांस्कृतिक अभियानों ने भारत की विविधता, एकता और भावनात्मक जुड़ाव को एक आवाज़ दी।

क्रिएटिव जीनियस, जिन्होंने कहानी कहने की कला को बदला
पीयूष पांडे की सोच थी कि “विज्ञापन सिर्फ उत्पाद बेचने का साधन नहीं, बल्कि भावनाओं को आवाज देने का माध्यम है।” उन्होंने आम आदमी के रोजमर्रा के अनुभवों, उसके हास्य और संवेदना को विज्ञापन के केंद्र में रखा। उनके विज्ञापनों में भारत का असली चेहरा झलकता था — वह भारत जो बोलता भी है, मुस्कुराता भी है, और महसूस भी करता है।
केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने शोक व्यक्त करते हुए लिखा—
“पद्मश्री पीयूष पांडे के निधन पर मेरी गहरी संवेदनाएं। उन्होंने कहानी कहने की कला को फिर से परिभाषित किया और हमें ऐसी कहानियां दीं जो हमेशा याद रहेंगी। उनकी सच्चाई, गर्मजोशी और हाजिरजवाबी ने हर व्यक्ति को छुआ।”
रचनात्मकता के स्तंभ को खोने का शोक, उद्योग जगत ने दी श्रद्धांजलि
पीयूष पांडे के निधन से विज्ञापन, फिल्म और मीडिया जगत में शोक की लहर है। उद्योगपति सुहेल सेठ ने लिखा—
“मेरे सबसे प्यारे दोस्त पीयूष पांडे जैसे जीनियस के खोने से मैं बहुत ज्यादा दुखी हूं। अब स्वर्ग में ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ पर जश्न और नृत्य होगा।”
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि “पीयूष पांडे ने रोजमर्रा की भाषा, सादगी और मानवीय संवेदनाओं को विज्ञापन संचार का हिस्सा बनाया। उनका काम भारतीय समाज का सच्चा प्रतिबिंब था।”
सादगी से भरा जीवन, संघर्षों से गढ़ा व्यक्तित्व
जयपुर में जन्मे पीयूष पांडे एक मध्यमवर्गीय परिवार से थे। उनके पिता बैंक में कार्यरत थे और परिवार में नौ भाई-बहन थे — जिनमें फिल्म निर्देशक प्रसून पांडे और प्रसिद्ध गायिका-अभिनेत्री इला अरुण भी शामिल हैं।
युवा अवस्था में वे क्रिकेटर बनना चाहते थे, उन्होंने राजस्थान क्रिकेट टीम के लिए खेला भी, लेकिन किस्मत ने उन्हें विज्ञापन की दुनिया में भेज दिया, जहाँ उन्होंने इतिहास रच दिया।
सम्मान और उपलब्धियाँ
विज्ञापन जगत में अपने योगदान के लिए पीयूष पांडे को 2016 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
वर्ष 2024 में उन्हें एलआईए लीजेंड अवॉर्ड भी प्रदान किया गया, जो विज्ञापन क्षेत्र की सर्वोच्च अंतरराष्ट्रीय मान्यताओं में से एक है।
उन्होंने 40 से अधिक वर्षों तक ओगिल्वी इंडिया के साथ काम किया और कंपनी के वाइस चेयरमैन के रूप में सेवा दी।
एक आवाज़ जो हमेशा गूंजती रहेगी
पीयूष पांडे ने भारतीय विज्ञापन को सिर्फ भाषा नहीं दी, बल्कि आत्मा दी।
उनके बनाए संवाद — “कुछ खास है”, “हर खुशी में रंग लाए”, “अबकी बार मोदी सरकार” — आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेंगे।
उनकी आवाज़ अब भले ही थम गई हो, पर उनके विचार, उनकी शैली और उनका प्रभाव भारतीय विज्ञापन जगत की हर कहानी में जीवित रहेंगे।
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