Trending News

April 19, 2025 6:59 AM

नेपाल अपनी पहचान की तलाश में

  • बलबीर पुंज
    भारत के एक और पड़ोसी देश नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती जा रही है। बीते कई दिनों से नेपाल में ‘संवैधानिक राजशाही’ की बहाली की मांग को लेकर चल रहा आंदोलन अचानक उग्र हो गया। 28 मार्च को हुए हिंसक प्रदर्शन में तीन लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। प्रदर्शनकारियों ने दो पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री— पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ और माधव कुमार नेपाल की पार्टियों के कार्यालयों पर हमला कर दिया। इतना ही नहीं, एक प्रदर्शनकारी ने अपनी कार संसद भवन तक घुसाकर पुलिसिया नाकाबंदी तोड़ दी। इस आंदोलन को आम जनता के साथ 40 संगठनों का समर्थन प्राप्त है। प्रदर्शनकारी वर्तमान नेपाली शासकीय-व्यवस्था, संविधान और गणराज्य के प्रति अपने गुस्से और हताशा को व्यक्त करते हुए पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के समर्थन में “राजा आऊ, देश बचाऊ” जैसे नारे लगा रहे हैं। लेख लिखे जाने तक काठमांडू में कर्फ्यू लागू है और सुरक्षा व्यवस्था के लिए सेना को तैनात कर दिया गया है। सवाल यह उठता है कि आखिर नेपाल की जनता अपने ‘लोकतंत्र और गणराज्य’ पर विश्वास क्यों खो रही है?
    यूं तो पूर्व राजा ज्ञानेंद्र ने खुले तौर पर अपनी वापसी की इच्छा व्यक्त नहीं की है। लेकिन वे अक्सर नेपाल की मौजूदा स्थिति, बिगड़ती अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी को लेकर अपनी चिंता व्यक्त करने वाले वीडियो संदेश जारी करते रहते हैं। वे नेपाल के विभिन्न पूजास्थलों की यात्रा करके जनता से संपर्क में भी रहते है। 18 फरवरी को नेपाल के ‘लोकतंत्र दिवस’ की पूर्व संध्या पर, ज्ञानेंद्र शाह ने संकेत दिया कि उन्होंने शाही महल से हटकर सुधार की उम्मीद की थी, जो अब तक अधूरी है। उनका कहना था कि नेपाल जैसी पारंपरिक समाज व्यवस्था को विविधता में एकता के प्रतीक के रूप में राजशाही की आवश्यकता है। देखते ही देखते राजशाही की बहाली के लिए एक आंदोलन समिति का गठन किया गया और 28 मार्च की रैली इस अभियान का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था।
    काठमांडू में इसी प्रदर्शन से छह किलोमीटर दूर वामपंथी मोर्चे ने भी अपनी रैली का आयोजन किया था, जिसमें उमड़ी लोगों की भीड़ राजशाही समर्थक प्रदर्शनकारियों की तुलना में बहुत कम थी। राजतंत्र विरोधी रैली में ‘प्रचंड’ और माधव कुमार नेपाल ने ज्ञानेन्द्र शाह को चेतावनी देते हुए कहा वे सिंहासन पर वापस लौटने का सपना न देखें। इसके बाद पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़प हो गई। मामले में कई राजशाही समर्थक नेताओं को गिरफ्तार किया गया है, जिन्हें 30 मार्च को हथकड़ियां पहनाकर किसी खूंखार कैदी की तरह अदालत में पेश किया गया। राजशाही विरोधियों ने नेपाली प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली से पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह को गिरफ्तार करने की मांग की है।
    वास्तव में, नेपाल में लोगों में लोकतंत्र-गणराज्य के प्रति आक्रोश के कई कारण है, जिसमें सांस्कृतिक पहचान का संकट और विभिन्न सरकारों पर भ्रष्टाचार का आरोप है। बात अधिक पुरानी नहीं है। भले ही दुनिया में सबसे अधिक हिंदू (लगभग 110 करोड़) अपनी मातृभूमि भारत में निवास करते हैं, फिर भी डेढ़ दशक से अधिक पहले तक नेपाल ही दुनिया का एकमात्र घोषित हिंदू राज्य था। 1990 के दशक में राजशाही विरोधी गुटों की लामबंदी, कालांतर में वामपंथियों द्वारा ‘लोकतंत्र’ के नाम पर भड़काए हिंसक आंदोलन में हजारों के मारे जाने के बाद नेपाल से हिंदू राजतंत्र वर्ष 2008 में समाप्त हो गया। तत्कालीन राजा ज्ञानेन्द्र शाह ने राजसी पद से इस्तीफा दे दिया। तब से लेकर आज तक नेपाल राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। संविधान निर्माण, सत्ता संघर्ष, और सामाजिक असमानताएं इसके प्रमुख कारण हैं। माओवादी और कांग्रेस दलों के बीच टकराव और सत्तासंघर्ष ने इस स्थिति को और जटिल बना दिया। वादाखिलाफी के साथ चीन से नेपाली सत्ता अधिष्ठान की नजदीकी भी इस देश की जनता को रास नहीं आ रही है।
    जिस प्रकार राजशाही को समाप्त किया गया, उसे लेकर नेपाल के एक बड़े वर्ग में आज भी संशय है। 1 जून 2001 को नेपाल के राजमहल-नारायणहिती पैलेस में एक सामूहिक गोलीबारी में तत्कालीन राजा बीरेंद्र, रानी ऐश्वर्या, और अन्य नौ शाही सदस्यों की हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड के लिए बुरी तरह जख्मी राजकुमार दीपेंद्र को जिम्मेदार ठहराया गया, परंतु सच सामने आता, उससे पहले ही 4 जून 2001 को उनकी भी मृत्यु हो गई। इसके बाद, उनके चाचा ज्ञानेंद्र को संरक्षक, फिर नेपाल नरेश घोषित कर दिया गया। तब यही आरोप राजा ज्ञानेंद्र पर भी चिपकाने का प्रयास हुआ।
    हालिया हिंसक प्रदर्शनों से स्पष्ट है कि नेपाल में व्यापक भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का गुस्सा अब उफान पर है और वह संगठित रूप ले रहा है। प्रधानमंत्री ओली पर नेपाली सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना कर एक चाय बागान को व्यावसायिक भूखंडों में बदलने के आरोप हैं। तीन पूर्व प्रधानमंत्री—माधव नेपाल (2009-11), बाबूराम भट्टराई (2011-13) और खिलराज रेग्मी (2013-14) पर सरकारी भूमि को निजी व्यक्तियों को देने के आरोप हैं। तीन बार प्रधानमंत्री रहे प्रचंड पर माओवादी संघर्ष के समय सरकारी पैसों के गबन का आरोप है। पांच बार के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा पर विमान खरीद में घूस लेने का आरोप है। उपरोक्त मामलों से जनता में यह धारणा बढ़ रही है कि वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली विफल हो रही है और राजशाही की वापसी से राजनेताओं के बंदरबांट की जांच और सजा संभव हो सकती है।
    नेपाली माओवादियों की चीन से वैचारिक बाध्यता के कारण भारत-नेपाल के संबंधों में ठंडापन आ गया है। दोनों के बीच सांस्कृतिक संबंध सहस्राब्दियों पुराने हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारत के गौरव हैं, जबकि माता सीता का जन्म नेपाल के जनकपुर में हुआ था। इसी तरह, लुंबिनी में जन्मे भगवान गौतमबुद्ध ने भारत के सारनाथ में पहला उपदेश दिया और कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। भारत और नेपाल के नागरिकों को एक-दूसरे की सीमाओं में रहने, संपत्ति अर्जन करने, रोजगार पाने और व्यापार करने की स्वतंत्रता प्राप्त है, जो कि दुनिया की एक दुर्लभ व्यवस्था है। ऐसे में नेपाल की मौजूदा अस्थिरता को देखते हुए यह कहना कठिन है कि आने वाले वक्त में नेपाल किस दिशा की ओर बढ़ेगा।
Share on facebook
Share on twitter
Share on linkedin
Share on whatsapp
Share on telegram