यूक्रेन युद्ध, ईरान-इजराइल टकराव और वैश्विक अस्थिरता के बीच नाटो के सामने सबसे बड़ा अस्तित्व संकट
द हेग, नीदरलैंड।
नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (NATO) का वार्षिक शिखर सम्मेलन आज नीदरलैंड के द हेग शहर में शुरू हो गया है। 76 वर्ष पुराने इस सैन्य गठबंधन के लिए यह बैठक अब तक की सबसे चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में हो रही है। एक ओर रूस-यूक्रेन युद्ध जारी है, वहीं दूसरी ओर पश्चिम एशिया में ईरान-इजराइल टकराव भड़क चुका है। वैश्विक अर्थव्यवस्था भी गहरे असंतुलन से जूझ रही है। इन सबके बीच अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बार-बार NATO की भूमिका और प्रभावशीलता पर सवाल उठाकर इस गठबंधन के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है।
क्या है NATO और क्यों बना था?
NATO की स्थापना 4 अप्रैल 1949 को अमेरिका समेत 12 देशों द्वारा की गई थी। इसका उद्देश्य था — सोवियत संघ के विस्तारवादी कदमों से पश्चिमी यूरोप की रक्षा करना। दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट सरकारों को समर्थन देकर अपना प्रभाव बढ़ाया। अमेरिका को आशंका थी कि यह लहर पूरे यूरोप को अपनी चपेट में ले सकती है।
इस खतरे के जवाब में अमेरिका ने “ट्रूमैन डॉक्ट्रिन” और “मार्शल प्लान” के जरिए लोकतांत्रिक देशों को आर्थिक और सैन्य सहायता दी। इसके बाद NATO अस्तित्व में आया, जिसमें सदस्य देशों ने यह सहमति दी कि किसी एक देश पर हमला होने की स्थिति में सभी मिलकर जवाब देंगे। यह सामूहिक सुरक्षा का सिद्धांत आज भी NATO का मूल आधार है।
बदलते दौर में NATO की चुनौती
एक समय था जब NATO को अमेरिका के नेतृत्व में अजेय सैन्य संगठन माना जाता था। लेकिन अब संगठन आंतरिक मतभेदों, सदस्य देशों के अलग-अलग एजेंडों और अमेरिकी नेतृत्व पर उठते सवालों के कारण संकट में है।
डोनाल्ड ट्रम्प कई बार कह चुके हैं कि NATO सदस्य देश अपनी सुरक्षा के लिए पर्याप्त खर्च नहीं कर रहे और अमेरिका पर अत्यधिक निर्भर हैं। उन्होंने यह तक कहा कि अगर वह फिर राष्ट्रपति बने, तो अमेरिका उन देशों की रक्षा नहीं करेगा जो रक्षा बजट में अपनी हिस्सेदारी नहीं निभा रहे।

अंदरूनी विवादों से भी टूटा है भरोसा
NATO का इतिहास केवल बाहरी खतरों से जूझने का नहीं, बल्कि अंदरूनी मतभेदों से भी जूझता रहा है:
- फ्रांस ने 1966 में अमेरिका-ब्रिटेन के बढ़ते प्रभाव के विरोध में NATO की सैन्य कमान से खुद को अलग कर लिया था। हालांकि 2009 में वह फिर पूरी तरह से जुड़ गया।
- ग्रीस ने 1974 में साइप्रस विवाद के चलते सैन्य भागीदारी छोड़ी, क्योंकि संगठन तुर्किये के हमले को रोक नहीं सका था। अमेरिका की मध्यस्थता से 1980 में वह लौट आया।
- तुर्किये और अमेरिका के बीच सीरिया, कुर्द लड़ाकों और रूस से मिसाइल सिस्टम खरीदने जैसे मुद्दों पर गंभीर मतभेद हैं। अमेरिका ने तुर्की को F-35 प्रोग्राम से बाहर कर दिया था।
- हंगरी की रूस-समर्थक विदेश नीति और लोकतंत्र पर अंकुश को लेकर भी NATO में टकराव बना रहता है। हंगरी ने यूक्रेन को लेकर कई प्रस्तावों को वीटो किया है।

आज की बैठक क्यों है बेहद अहम
आज की बैठक NATO की एकजुटता और भविष्य की दिशा तय करने वाली मानी जा रही है। संगठन को यह तय करना होगा कि वह अपने मूल उद्देश्य— सामूहिक सुरक्षा— को मौजूदा जियोपॉलिटिकल परिस्थितियों में कैसे बनाए रखे। खासकर यूक्रेन युद्ध में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप न करना और इजराइल-ईरान संघर्ष पर स्पष्ट रुख न अपनाना, NATO की विश्वसनीयता को चुनौती दे रहा है।
क्या यह संगठन केवल पश्चिमी देशों का राजनीतिक मंच बनकर रह जाएगा या एक बार फिर निर्णायक भूमिका निभा पाएगा— यह प्रश्न द हेग की बैठक में सामने होगा।
स्वदेश ज्योति के द्वारा
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