विश्व की समस्याओं पर नहीं, समाधान पर हो चर्चा: डॉ. मोहन भागवत
नई दिल्ली।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) और अखिल भारतीय अणुव्रत न्यास द्वारा आयोजित 10वें अणुव्रत न्यास निधि व्याख्यान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने “विश्व की समस्याएं और भारतीयता” विषय पर गहन चिंतन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि आज के समय में समस्याओं की चर्चा बहुत होती है, जबकि समाधानों पर केंद्रित विमर्श की आवश्यकता है।

केवल समस्याओं पर चर्चा से समाधान नहीं निकलता
डॉ. भागवत ने अपने व्याख्यान में स्पष्ट किया कि दुनिया समस्याओं से घिरी हुई है, लेकिन इन समस्याओं की चर्चा से कोई हल नहीं निकलता। उन्होंने कहा, “हम जब भी किसी मंच पर आते हैं, समस्याएं गिनाने लगते हैं। इससे केवल मानसिक तनाव बढ़ता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि हम समाधान के रास्ते पर चर्चा करें, उपायों को साझा करें और उन पर काम करें।”
दुख सबसे पुरानी समस्या है
भागवत ने बताया कि अगर हम मानव सभ्यता के इतिहास पर दृष्टि डालें, तो समस्याओं की सूची दो हजार वर्षों से लगभग एक-सी है। सबसे पुरानी और बुनियादी समस्या दुख है। उन्होंने कहा कि “मनुष्य दुखी है और दुख दूर करने के प्रयास लगातार हुए हैं। लेकिन विज्ञान, तकनीक, भौतिक सुख-सुविधाएं आने के बावजूद आज भी इंसान भीतर से दुखी है।”

तकनीक बढ़ी, शांति कम हुई
उन्होंने आधुनिक तकनीकी युग की तुलना अतीत से करते हुए कहा कि पहले वक्ता को जोर-जोर से बोलना पड़ता था, पदयात्रा करनी पड़ती थी। आज सब कुछ आसान हो गया है, लेकिन असंतोष और अशांति बनी हुई है। उन्होंने कहा कि “साल 1950 से लेकर आज तक एक भी साल ऐसा नहीं गया जब दुनिया में युद्ध न हुआ हो। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शांति की बातें की गईं, किताबें लिखी गईं, लेकिन क्या वास्तव में शांति आई?”
ज्ञान के साथ अज्ञान भी बढ़ा
डॉ. भागवत ने ज्ञान और अज्ञान के संतुलन पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि जहां एक ओर मनुष्य विज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ गया है, वहीं अज्ञानी लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। उन्होंने कहा, “पहले आयुर्वेद का सामान्य ज्ञान हर व्यक्ति को होता था। अब वही ज्ञान अगर रामदेव बाबा देते हैं तो लौकी की कीमत बढ़ जाती है। इसका मतलब है कि ज्ञान का प्रचार हुआ है, लेकिन जीवन में उसका सहज उपयोग समाप्त हो गया है।”
संघर्ष जीवन का हिस्सा है
उन्होंने यह भी कहा कि अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष अनिवार्य है। प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है, लेकिन उसका समाधान केवल भौतिकता में नहीं, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक मूल्यों में है। उन्होंने बताया कि “आज का जीवन इस विचार पर टिका है कि जब तक जीवित हो, उपभोग करते रहो। लेकिन क्या यही जीवन का लक्ष्य है? भौतिक संसाधनों के पीछे भागने से प्रेम, करुणा, और सहअस्तित्व जैसे मूल्य कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं।”

भारत के विचार और संस्कृति समाधान का मार्ग
डॉ. भागवत ने भारतीय संस्कृति की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि विश्व में जो भी समाधान की संभावना है, वह भारतीयता में निहित है। उन्होंने कहा कि “भारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक जीवन दृष्टि है। भारत ने हजारों वर्षों से जीवन, समाज और प्रकृति के संतुलन पर चिंतन किया है। यह विचार ही आज की समस्याओं का समाधान है।”
अपने उद्बोधन में डॉ. भागवत ने यह स्पष्ट किया कि मानवता की समस्याएं स्थायी हैं, लेकिन यदि विचार और दृष्टिकोण बदले जाएं, भारतीय परंपराओं से प्रेरणा ली जाए, तो समाधान संभव है। उन्होंने कहा कि “विश्व को आज भारतीय सोच की आवश्यकता है, जो केवल भौतिक विकास नहीं, बल्कि आत्मिक और सामाजिक संतुलन की बात करता है।”
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