August 1, 2025 3:57 PM

मालेगांव बम विस्फोट केस में 17 साल बाद आया फैसला, साध्वी प्रज्ञा समेत सभी आरोपी बरी

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मालेगांव विस्फोट केस में साध्वी प्रज्ञा सहित सभी आरोपी बरी, कोर्ट ने दिया बड़ा फैसला

: जानिए पूरे मामले की परत-दर-परत कहानी

मुंबई। साल 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए बम विस्फोट मामले में एनआईए की विशेष अदालत ने 31 जुलाई 2025 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया है। बरी किए गए लोगों में सबसे प्रमुख नाम साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित और रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय का है। अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि आरोपियों के खिलाफ कोई विश्वसनीय सबूत प्रस्तुत नहीं किया जा सका। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसका गहरा राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव भी है क्योंकि यह वही मामला था जिसके जरिए “भगवा आतंकवाद” जैसे विवादास्पद नैरेटिव की नींव रखी गई थी।

इस लेख में हम जानेंगे कि क्या था पूरा मामला, किन-किन लोगों पर आरोप लगे, जांच एजेंसियों ने कैसे काम किया, कोर्ट ने किन तथ्यों के आधार पर बरी किया और अब उठते हैं कौन से बड़े सवाल।


🔥 क्या हुआ था 29 सितंबर 2008 को?

29 सितंबर 2008 को रमजान के महीने में महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव शहर में शाम को भीकू चौक पर एक मोटरसाइकिल में बम धमाका हुआ।

  • मृतक: 6 लोग
  • घायल: 101 लोग
  • धमाके में इस्तेमाल हुई एलएमएल फ्रीडम बाइक
  • बाइक के नंबर प्लेट फर्जी पाए गए, जांच में सामने आया कि बाइक साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के नाम पर पंजीकृत थी

🕵️‍♀️ जांच: एटीएस से एनआईए तक

📍 प्रारंभिक जांच:

  • मालेगांव पुलिस ने FIR दर्ज की
  • मामला एटीएस को सौंपा गया
  • एटीएस ने दावा किया कि “अभिनव भारत” नामक संगठन ने धमाका रचा था
  • कुल 16 लोगों को आरोपी बनाया गया

📍 प्रमुख सुराग:

  • मोटरसाइकिल का इंजन नंबर बदलकर पहचान छुपाई गई
  • फॉरेंसिक रिपोर्ट से बाइक की पहचान की गई
  • इसे आधार बनाकर साध्वी प्रज्ञा को मुख्य आरोपी बनाया गया

📍 एनआईए की एंट्री (2011):

  • 2011 में केस राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) को सौंपा गया
  • 2016 में एनआईए ने चार्जशीट दायर की, जिसमें कहा गया कि:
    • मकोका जैसी धाराएं गलत तरीके से लगाई गईं
    • गवाहों को डराकर बयान लिए गए
    • कुछ सबूत बनाए गए प्रतीत होते हैं

⚖️ कोर्ट ने क्या कहा अपने फैसले में?

विशेष एनआईए कोर्ट के जज एके लाहोटी ने कहा:

  • कोई ऐसा प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य सबूत नहीं मिला जिससे यह साबित हो कि आरोपियों ने विस्फोट में कोई भूमिका निभाई
  • यह साबित नहीं किया जा सका कि कर्नल पुरोहित आरडीएक्स लाए या बम असेंबल किया
  • मेडिकल सर्टिफिकेट कुछ अवैध डॉक्टरों द्वारा जारी किए गए, जिनकी प्रमाणिकता नहीं साबित हो सकी
  • जिस इलाके में मोटरसाइकिल खड़ी मिली, वह रमजान के चलते सील था, इसलिए वहां कैसे पहुंची – यह भी स्पष्ट नहीं
  • पुलिस की बंदूक छीनने, पथराव और नुकसान पहुंचाने जैसी घटनाओं पर भी कोई ठोस साक्ष्य नहीं
  • 41 गवाहों को अभियोजन ने खुद हटा लिया, 39 गवाह बयान से पलटे, 26 गवाहों की मौत हो गई

👥 ये थे 7 आरोपी जिनको कोर्ट ने किया बरी:

  1. साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर
  2. लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित
  3. रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय
  4. सुधाकर चतुर्वेदी
  5. अजय राहिरकर
  6. सुधाकर धर द्विवेदी
  7. समीर कुलकर्णी
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🧪 तकनीकी साक्ष्य और अभियोजन की कमजोरियां:

  • कॉल डाटा रिकॉर्ड्स, वॉयस सैंपल्स पेश किए गए
  • कई गवाहों के बयान विरोधाभासी
  • लंबी सुनवाई में कई गवाहों की मौत हो गई
  • 323 गवाहों की गवाही, लेकिन कोई साक्ष्य निर्णायक नहीं साबित हुआ

🗣️ राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया:

🟠 साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का बयान:

“मेरे जीवन के 17 वर्ष बर्बाद हुए। हिरासत में मेरे साथ ऐसा अत्याचार हुआ कि मेरे फेफड़े की झिल्ली तक फट गई। पर मैंने न्यायपालिका पर विश्वास रखा। यह सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि हिन्दू समाज की जीत है।”

🟠 डॉ. मोहन यादव, मुख्यमंत्री (मध्यप्रदेश):

“यह फैसला कांग्रेस की संकुचित मानसिकता पर करारा प्रहार है। हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। कांग्रेस को देश से माफी मांगनी चाहिए।”

🟠 सुनील आंबेकर, प्रचार प्रमुख, RSS:

“कुछ लोगों ने राजनीतिक स्वार्थ में मामले को तोड़-मरोड़ कर पेश किया। न्यायालय के निर्णय से यह नैरेटिव अब समाप्त हो गया है।”


अब क्या हैं प्रमुख सवाल और चिंताएं?

  1. यदि आरोपी दोषी नहीं थे, तो असली दोषी कौन थे?
  2. 17 साल तक निर्दोषों को जेल में क्यों रखा गया?
  3. क्या जांच एजेंसियों ने राजनीतिक दबाव में काम किया?
  4. क्या इससे जनता का न्याय प्रणाली पर भरोसा कम होगा?

विस्तृत व्याख्या सारांश में

मालेगांव विस्फोट मामला केवल एक आपराधिक मामला नहीं था, बल्कि यह धार्मिक पहचान, राजनीतिक नैरेटिव और न्याय व्यवस्था का एक जटिल मिश्रण बन गया था। 17 वर्षों की लंबी कानूनी प्रक्रिया और तीन जांच एजेंसियों के बावजूद कोई भी निर्णायक सबूत अदालत के सामने नहीं रखा जा सका। अदालत के फैसले ने इस पूरे मामले को एक नई दृष्टि से देखने की जरूरत पर बल दिया है – जहां जांच और न्याय प्रक्रिया दोनों निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए, वरना निर्दोषों की जिंदगी तबाह हो सकती है।



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