एटीएस अधिकारी का खुलासा: मालेगांव केस में मोहन भागवत को गिरफ़्तार करने का दबाव था
मुंबई।
2008 के मालेगांव बम विस्फोट मामले को लेकर महाराष्ट्र एटीएस के एक पूर्व अधिकारी महबूब मुजावर के नए खुलासे ने एक बार फिर से राजनीति, जांच एजेंसियों और वैचारिक टकराव को लेकर बड़ी बहस छेड़ दी है। उन्होंने कहा है कि उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत को गिरफ़्तार करने का दबाव था।
यह बयान न सिर्फ उस दौर की जांच प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाता है, बल्कि कांग्रेस पार्टी की कथित मुस्लिम तुष्टिकरण नीति और हिंदू संगठनों को निशाना बनाने की रणनीति पर भी गहरे संदेह खड़े करता है।

महबूब मुजावर का बयान: कांग्रेस का पुराना एजेंडा उजागर
पूर्व एटीएस अधिकारी महबूब मुजावर ने कहा कि मालेगांव बम धमाके के तुरंत बाद उनके वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से यह स्पष्ट निर्देश दिए गए थे कि डॉ. मोहन भागवत को इस मामले में नामजद किया जाए। इस समय केंद्र में यूपीए सरकार थी और गृह मंत्री शिवराज पाटिल थे, जबकि महाराष्ट्र में गृहमंत्री की जिम्मेदारी आर. आर. पाटिल के पास थी।
मुजावर के अनुसार, पूरा मामला पहले से तय एक राजनीतिक स्क्रिप्ट की तरह चल रहा था, जिसका मकसद था – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवाद से जोड़कर बदनाम करना। उन्होंने यह भी कहा कि “जांच की पूरी प्रक्रिया फर्जी और निर्देशित थी।”
मालेगांव विस्फोट और भगवा आतंकवाद का कथानक
सितंबर 2008 में मालेगांव में एक मस्जिद के पास हुए विस्फोट में कुछ लोग मारे गए थे। घटना के बाद मीडिया और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं द्वारा “भगवा आतंकवाद” शब्द का प्रयोग शुरू हुआ। यह एक नई राजनीतिक और वैचारिक दिशा थी, जिसमें पहली बार किसी हिंदू संगठन या विचारधारा को आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश की गई।
इस कथानक के तहत साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित, और कुछ अन्य लोगों को आरोपी बनाया गया। लंबे समय तक जांच चली, और यह मामला राजनीतिक विमर्श का केंद्र बन गया।
परंतु हाल ही में एनआईए कोर्ट ने सभी आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि आरोपों का कोई ठोस आधार नहीं था, और प्रारंभिक जांच को लेकर गहरी शंका अब सार्वजनिक विमर्श में आ गई है।

कांग्रेस की राजनीति पर उठे सवाल
मुजावर के बयान और अदालत के फैसले के बाद यह सवाल तेजी से उठ रहा है कि –
- क्या कांग्रेस ने राजनीतिक लाभ के लिए जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया?
- क्या यह सब हिंदू संगठनों और विचारधाराओं को बदनाम करने की एक सुनियोजित साजिश थी?
- क्या कांग्रेस और उससे जुड़े नेताओं को देश से माफी मांगनी चाहिए?
पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम, जिनके कार्यकाल में यह मामला उभरा, से लेकर कई कांग्रेस नेताओं ने बार-बार भगवा आतंकवाद पर बयान दिए थे। आज जब उसी मामले में आरोपी बरी हो चुके हैं और जांच पर सवाल उठ चुके हैं, तो कांग्रेस की नैतिक जवाबदेही पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
वामपंथी बौद्धिक समर्थन भी रहा शामिल
इस पूरे घटनाक्रम में वामपंथी विचारधारा से जुड़े बुद्धिजीवी और मीडिया वर्ग ने भी कथित भगवा आतंकवाद को बड़े पैमाने पर प्रचारित किया। मीडिया ट्रायल और सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों ने इस मसले को और भी उलझा दिया।
कई धार्मिक संगठनों और संत समुदाय ने इसे हिंदू संस्कृति और सनातन पर हमला बताया। कुछ साधु-संतों ने तो यहां तक कह दिया कि “कांग्रेस पर आपराधिक मुकदमा दर्ज होना चाहिए, क्योंकि उसने पूरे देश को झूठ और वैचारिक घृणा की आग में झोंकने की कोशिश की।”
अब क्या कांग्रेस माफी मांगेगी?
यह बड़ा और मौलिक सवाल है।
एनआईए अदालत का फैसला, महबूब मुजावर का बयान और मामले में तथ्यहीन जांच की पुष्टि अब कांग्रेस के लिए गंभीर नैतिक संकट बन चुके हैं। क्या पार्टी को इस पूरे प्रकरण के लिए देश से क्षमा मांगनी चाहिए? क्या कांग्रेस यह स्वीकार करेगी कि राजनीतिक लाभ के लिए उसने धार्मिक विद्वेष को हवा दी?
न्याय और सच्चाई की पुनः स्थापना
मालेगांव विस्फोट के मामले में अदालत का फैसला और एक एटीएस अधिकारी का यह साहसिक बयान, न केवल एक झूठे नैरेटिव के पतन की ओर संकेत करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि देश में सत्ता और एजेंसियों का राजनीतिक इस्तेमाल किस तरह समाज को बांटने और धार्मिक ध्रुवीकरण का कारण बन सकता है।
अब जबकि सच्चाई सामने आ रही है, समय आ गया है कि देश की राजनीति आत्ममंथन करे और भविष्य में धार्मिक पहचान के आधार पर वैचारिक दुश्मनी को प्रोत्साहित करने से बचे।
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