- आलोक मेहता
भारत द्वारा ऑपरेशन सिंदूर के तहत 9 आतंकी ठिकानों पर हमला किए जाने के बाद सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों की बाढ़ आ गई । यही नहीं कुछ प्रतिष्ठित और अधिकाधिक दर्शकों तक पहुँचने का दावा करने वाले भारतीय टी वी न्यूज़ चैनल्स और उनकी वेबसाइट्स ने भी प्रतियोगिता की हड़बड़ी में देर रात ऐसी भ्रामक और उत्तेजक खबरें प्रसारित कर दी। देश विदेश में हंगामा सा हो गया। महिलाऐं और बुजुर्ग रात भर रिश्तेदारों को फोन करते रहे। कई तरह की फर्जी खबरें सामने आने के बाद सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों ने आनन-फानन में बैठक बुलाई और पूरी सक्रियता के साथ इनसे निपटने के उपायों पर चर्चा की। सरकार ने भ्रामक सूचनाओं को तत्काल हटाने के आदेश दिए। अगले दिन से मीडिया कुछ संयमित दिखा। इस राष्ट्रीय संकट जैसी स्थिति में मीडिया की स्वतंत्रता से अधिक स्वच्छंदता और भारत विरोधी ताकतों को अप्रत्यक्ष रुप से सहायता कहा जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि समाचार माध्यमों, अत्याधुनिक संचार सुविधाओं के असीमित विस्तार के बावजूद भारतीय संसद , सरकार और सुप्रीम कोर्ट अब तक कोई कारगर कड़े नियम कानून अख़बार , टी वी या यू ट्यूब चैनल्स , वेबसाइट्स और सोशल मीडिया के लिए लागू नहीं कर सकी है। क्या सुरक्षा, इमरजेंसी में इलाज या प्राकृतिक विपदा में बचाव के नियम और उपाय पहले से तय नहीं होते हैं। सरकार और संसद और कोर्ट भी वर्षों से सोच विचार, बहस या तात्कालिक निर्णय करती रही है, लेकिन अब समय आ गया है जबकि मीडिया के लिए ठोस नियम कानून बनाए जाएं ।
संभव है कि मीडिया के कई मित्र या कुछ संगठन मेरी बातों से असहमत हों, लेकिन मैंने जिन वरिष्ठ सम्पादकों के साथ काम किया और देश के शीर्ष नेताओं को जाना समझा है, वे सीमा रेखा और आचार संहिता पर जोर देते रहे । ऐसे सम्पादकों या प्रेस परिषद् ने जो कोड ऑफ़ इथिक्स तय किए, उन्हें आज कई मीडिया संस्थान और पत्रकार नहीं अपना रहे। प्रेस की आज़ादी के नाम पर अमेरिका के कानूनों का उल्लेख किया जाता है और अमेरिका या यूरोप के कुछ संगठन भारत की स्थिति पर रोना गाना करते हैं। लेकिन भारत में उन्हें कोई ध्यान नहीं दिलाता कि कई दशकों से अमेरिका में रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में मीडिया पर अंकुश के कई कदम उठाए जाते रहे हैं। वहां सत्ता से जुड़े या विरोधी मीडिया खुलकर बंटे हुए हैं । संसद की एक स्थायी समिति ने सूचनाओं के प्रवाह की निगरानी करने वाले दो प्रमुख मंत्रालयों से पहलगाम आतंकी हमले के बाद ‘राष्ट्रीय हित के खिलाफ काम करते प्रतीत होने वाले’ सोशल मीडिया मंचों और इंफ्लुएंसर के खिलाफ की गई कार्रवाई के बारे में विवरण मांगा है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद निशिकांत दुबे की अध्यक्षता वाली संचार और सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति ने इस बात को अपने संज्ञान में लिया है कि भारत में कुछ सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और मंच ‘देश के हित के खिलाफ काम कर रहे हैं, जिससे हिंसा भड़कने की आशंका है।’समिति ने सूचना और प्रसारण तथा इलेक्ट्रॉनिक एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालयों को लिखे पत्र में ‘आईटी अधिनियम 2000 और सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 के तहत ऐसे मंचों पर प्रतिबंध लगाने के लिए की गई विचारित कार्रवाई’ का विवरण मांगा है।
संसद की समिति ‘फर्जी समाचारों पर अंकुश लगाने के तंत्र की समीक्षा’ विषय की जांच करेगी और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा मीडिया उद्योग के अन्य हितधारकों के प्रतिनिधियों से साक्ष्य के बारे में सुनेगी। यह ध्यान देने की बात है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रेस सूचना ब्यूरो के अंतर्गत फैक्ट चेक यूनिट ने पहले भी मार्च, 2025 तक फर्जी खबरों के 97 से अधिक मामलों की पहचान की थी । रेलवे, सूचना एवं प्रसारण, तथा इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने लोकसभा को सूचित किया था कि मंत्रालय ने 2024 में 583, 2023 में 557 और 2022 में 338 फर्जी खबरों की पहचान की है। 2022 से अब तक मंत्रालय ने कुल 1,575 फर्जी खबरों के मामलों को चिन्हित किया है। 2025 में अब तक पीआईबी फैक्ट चेक यूनिट को लगभग 5,200 प्रश्न प्राप्त हुए हैं, जिनमें से 1,811 को कार्रवाई योग्य माना गया।
इस सन्दर्भ में इस तथ्य को ध्यान में रखा जाए कि ब्रिटेन या यूरोप के देशों में अख़बार , न्यूज़ चेनल्स की संख्या सीमित है। ब्रिटेन में तो राज सत्ता यानि राज परिवार पर आज भी कई खबरें नहीं छापी जा सकती है। सरकार के कोप से मीडिया सम्राट मुर्डोक तक को अपना एक बड़ा टैब्लॉइड अख़बार बंद करना पड़ा था। कहे दशक अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार में कटौती के प्रयास हो रहे हैं। रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ही पार्टियों के प्रशासन ने व्हिसलब्लोअर और पत्रकारों के स्रोतों पर मुकदमा चलाने के लिए जासूसी अधिनियम का उपयोग करना सामान्य बना दिया है। न्याय विभाग ने जासूसी अधिनियम के तहत विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे को दोषी ठहराया। ऐसा करके उन्होंने कुछ ऐसा हासिल किया जो कभी अकल्पनीय माना जाता था। नियमित समाचार एकत्रीकरण गतिविधियों का सफल अपराधीकरण, जिसके बारे में लंबे समय से माना जाता था कि वे पहले संशोधन द्वारा संरक्षित हैं। पत्रकारिता के इस अपराधीकरण के साथ-साथ पत्रकारों की निगरानी में भी वृद्धि हुई है।
अमेरिकी रिपब्लिकन सरकार के समर्थक एक बड़े संस्थान नए मीडिया पर नियंत्रण के लिए प्रोजेक्ट २०२५ बनाकर दिया हुआ है। इसके घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए न्याय विभाग को व्हिसलब्लोइंग के खिलाफ़ ‘अपने पास उपलब्ध सभी उपकरणों’ का उपयोग करने के लिए बाध्य करना है। हेरिटेज फाउंडेशन पत्रकारों और मुखबिरों पर इस कार्रवाई को यह कहकर उचित ठहराता है कि खुफिया ‘कर्मियों के पास इंस्पेक्टर जनरल और कांग्रेस द्वारा प्रदान की गई सुरक्षा के तहत वैध मुखबिरों के दावों तक पर्याप्त पहुंच है।’ 2022 में अटॉर्नी जनरल मेरिक गारलैंड ने एक संशोधित नीति लागू की , जब न्याय विभाग एक पत्रकार के संचार रिकॉर्ड प्राप्त कर सकता था या उन्हें गवाही देने के लिए मजबूर कर सकता था। यह कदम उन खुलासों के जवाब में आया है कि ट्रम्प प्रशासन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स के चार पत्रकारों के ईमेल रिकॉर्ड मांगे थे , और द वाशिंगटन पोस्ट के तीन पत्रकारों के फोन रिकॉर्ड और सीएनएन रिपोर्टर के फोन और ईमेल रिकॉर्ड को सफलतापूर्वक जब्त कर लिया था। ये सभी जब्तियां वर्गीकृत सूचनाओं के लीक होने की जांच का हिस्सा थीं।