कोर्ट ने कहा – धारा 307 जघन्य अपराध की श्रेणी में नहीं आती, नाबालिग की उम्रकैद रद्द
रायपुर।
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने किशोर न्याय अधिनियम की व्याख्या करते हुए एक ऐतिहासिक निर्णय दिया है, जो भविष्य में बाल अपराध कानून की दिशा को प्रभावित कर सकता है। जस्टिस संजय के अग्रवाल की युगल पीठ ने हत्या के प्रयास (आईपीसी धारा 307) के मामले में नाबालिग को वयस्क मानकर दी गई उम्रकैद की सजा को निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय न केवल आरोपी के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि किशोर न्याय अधिनियम की मूल भावना को भी स्थापित करता है।
⚖️ क्या था मामला?
मामला वर्ष 2017 का है, जब छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में एक 17 वर्षीय किशोर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 307 (हत्या का प्रयास) के तहत प्रकरण दर्ज किया गया था। मामले की जांच किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के तहत की गई और चालान किशोर न्याय बोर्ड में पेश किया गया।
बोर्ड ने किशोर की उम्र 16 से 18 वर्ष के बीच मानते हुए प्रारंभिक मूल्यांकन (सेक्शन 15) किया और अपराध को ‘जघन्य’ श्रेणी का बताते हुए मामला बाल न्यायालय को सौंप दिया। बाल न्यायालय ने नाबालिग को वयस्क मानते हुए सुनवाई की और उम्रकैद तथा 200 रुपए जुर्माने की सजा सुना दी।
📌 हाईकोर्ट ने क्यों रद्द की सजा?
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान कहा कि –
“आईपीसी की धारा 307 एक गंभीर अपराध हो सकता है, लेकिन जब तक उसमें न्यूनतम 7 वर्ष की सजा निर्धारित नहीं है, तब तक उसे ‘जघन्य अपराध’ नहीं माना जा सकता।”
यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ‘शिल्पा मित्तल बनाम भारत सरकार (2020)’ के आधार पर दिया गया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि किसी अपराध को जघन्य (heinous) तभी माना जा सकता है, जब उसमें कानूनन न्यूनतम सजा 7 साल या उससे अधिक हो।
धारा 307 के अंतर्गत सजा की कोई न्यूनतम सीमा तय नहीं है, केवल अधिकतम सजा का प्रावधान है। इस आधार पर कोर्ट ने कहा कि किशोर को वयस्क मानना कानून की गलत व्याख्या थी और उसकी उम्रकैद की सजा कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण है।

📚 किशोर न्याय अधिनियम का महत्व
Juvenile Justice Act, 2015 के तहत यदि किसी किशोर की उम्र 16 से 18 वर्ष के बीच है और उसने कोई ‘जघन्य अपराध’ किया है, तो प्रारंभिक मूल्यांकन के बाद उसे वयस्क मानकर मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन ‘जघन्य अपराध’ की परिभाषा में वही अपराध आता है जिसमें न्यूनतम 7 साल की सजा हो।
इस केस में धारा 307 में ऐसा स्पष्ट प्रावधान न होने के कारण अदालत ने इसे जघन्य मानने से इनकार कर दिया।
🧾 फैसले के कानूनी और सामाजिक मायने
- यह फैसला किशोरों के लिए संवैधानिक संरक्षण को मजबूत करता है।
- कोर्ट ने यह संकेत दिया है कि किशोरों के पुनर्वास और सुधार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए न कि उन्हें वयस्कों जैसा दंड देकर दमन किया जाए।
- साथ ही, यह निर्णय भविष्य में प्रारंभिक मूल्यांकन (initial assessment) की प्रक्रिया को और अधिक सावधानी से करने की ओर इशारा करता है।
📌 न्यायिक टिप्पणी:
“कोई भी किशोर तब तक वयस्क नहीं माना जा सकता, जब तक उसके अपराध को स्पष्ट रूप से कानून में जघन्य की श्रेणी में न रखा गया हो।”
— छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय, रायपुर
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