• गठित तीन सदस्यीय आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को चुनौती दी थी

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की उस याचिका को सिरे से खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने उनके खिलाफ गठित तीन सदस्यीय आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को चुनौती दी थी। साथ ही, उन्होंने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना द्वारा की गई महाभियोग की सिफारिश को भी असंवैधानिक ठहराने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि याचिका में उठाए गए तर्क भरोसेमंद नहीं हैं और न्यायमूर्ति वर्मा का आचरण भी न्यायपालिका के अनुरूप नहीं दिखता।

सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी: ‘वर्मा का आचरण विश्वास नहीं पैदा करता’

सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का व्यवहार ऐसा नहीं है जिससे उनके पक्ष में किसी भी प्रकार की संवैधानिक राहत दी जा सके। पीठ ने यह भी कहा कि उनके आचरण में पारदर्शिता और मर्यादा का अभाव दिखाई देता है, जो एक उच्च न्यायिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए गंभीर चिंता का विषय है।

तीन न्यायाधीशों की समिति की रिपोर्ट बनी विवाद का केंद्र

न्यायमूर्ति वर्मा ने अपनी याचिका में दावा किया था कि आंतरिक जांच समिति की प्रक्रिया दोषपूर्ण थी और उनके पक्ष को सही ढंग से सुना नहीं गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि समिति की कार्यवाही पूरी तरह न्यायसंगत, संतुलित और प्रक्रियात्मक नियमों के अनुसार हुई।

महाभियोग की सिफारिश को भी चुनौती दी गई थी

इस याचिका में एक अन्य प्रमुख बिंदु यह भी था कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना द्वारा राष्ट्रपति को सौंपी गई महाभियोग की सिफारिश को असंवैधानिक करार दिया जाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी मानने से इनकार कर दिया और कहा कि ऐसे मामलों में सर्वोच्च स्तर पर विवेकाधिकार के प्रयोग में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।

न्यायपालिका में जवाबदेही का संकेत

विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक पदों की गरिमा बनाए रखने और आंतरिक जवाबदेही की प्रणाली को मजबूत करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। यह संदेश स्पष्ट है कि न्यायपालिका के भीतर भी अनुशासन और मर्यादा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी।

संवेदनशील मामलों में न्यायपालिका की पारदर्शिता ज़रूरी

इस निर्णय ने एक बार फिर न्यायपालिका के भीतर पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की आवश्यकता को रेखांकित किया है। यह मामला सिर्फ एक न्यायाधीश के आचरण का नहीं, बल्कि पूरी न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता से जुड़ा है।