लोकसभा में 145 और राज्यसभा में 63 सांसदों ने दिया प्रस्ताव, आगजनी और नकदी बरामदगी मामला बना आधार
नई दिल्ली। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो गई है। सोमवार को विभिन्न राजनीतिक दलों के 145 लोकसभा सदस्यों ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते हुए इसे लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को सौंपा, जबकि राज्यसभा के 63 सदस्यों ने भी प्रस्ताव का नोटिस जारी किया। यह कदम न्यायमूर्ति वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने और वहां से अधजली नकदी बरामद होने के बाद उठाया गया है।
आगजनी और अधजली नकदी बनी मुख्य वजह
उल्लेखनीय है कि 15 मार्च को दिल्ली स्थित न्यायमूर्ति वर्मा के आधिकारिक आवास पर आग लगने की घटना हुई थी। बाद में जब मौके की जांच की गई, तो वहां से अधजले नोटों की बड़ी मात्रा में बरामदगी हुई। यह मामला सार्वजनिक होते ही न्यायपालिका और कार्यपालिका में हलचल मच गई। इसके बाद उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय से स्थानांतरित कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय भेज दिया गया।
संवैधानिक अनुच्छेदों के अंतर्गत कार्रवाई
इस प्रस्ताव को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 218 के तहत लाया गया है, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया को परिभाषित करता है। नियमों के अनुसार, लोकसभा में कम से कम 100 और राज्यसभा में 50 सांसदों के हस्ताक्षर जरूरी होते हैं। इस प्रस्ताव ने दोनों सदनों में आवश्यक संख्या से कहीं अधिक समर्थन प्राप्त कर लिया है।
कई दलों का मिला समर्थन
इस महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने वालों में भाजपा, कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, जनता दल (सेक्यूलर), द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, जनसेना पार्टी, असम गण परिषद, शिवसेना (शिंदे समूह), लोक जनशक्ति पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित अनेक दलों के सांसद शामिल हैं।
प्रमुख हस्ताक्षरकर्ताओं में रविशंकर प्रसाद, अनुराग ठाकुर, राहुल गांधी, टीआर बालू, राजीव प्रताप रूडी, एमके प्रेमचंद्रन, पीपी चौधरी, सुप्रिया सुले और केसी वेणुगोपाल जैसे वरिष्ठ नेता शामिल हैं।
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अगला कदम: जांच और अनुशंसा
अब संसद इस प्रस्ताव के आधार पर जांच समिति का गठन कर सकती है, जो आरोपों की विस्तृत जांच करेगी। यदि समिति आरोपों को सही पाती है और संसद में प्रस्ताव को दोनों सदनों से दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है, तो राष्ट्रपति न्यायमूर्ति वर्मा को पद से हटाने की मंजूरी दे सकते हैं।
यह मामला देश की न्यायिक व्यवस्था की गरिमा और पारदर्शिता से जुड़ा है। यदि आरोप सही पाए जाते हैं, तो यह भारत के न्यायिक इतिहास में एक बड़ी और अभूतपूर्व कार्रवाई होगी।
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