गौतमपुरा में हिंगोट युद्ध: अग्निबाणों की वर्षा के बीच शौर्य और परंपरा का प्रदर्शन, पांच योद्धा घायल
मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के गौतमपुरा कस्बे में दीपावली के दूसरे दिन धोक पड़वा पर्व पर सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार सोमवार को हिंगोट युद्ध का आयोजन किया गया। इस अनोखे युद्ध में गौतमपुरा और रूणजी गांवों के वीर योद्धाओं ने तुर्रा और कलंगी दलों में बंटकर एक-दूसरे पर अग्निबाणों की वर्षा की। करीब डेढ़ घंटे तक चले इस रोमांचक लेकिन जोखिम भरे युद्ध में पांच योद्धा घायल हो गए, हालांकि सभी की स्थिति सामान्य बताई गई है।
परंपरा में रचा-बसा हिंगोट युद्ध
गौतमपुरा का हिंगोट युद्ध केवल एक आयोजन नहीं, बल्कि यह लोक परंपरा, साहस और सामाजिक एकता का प्रतीक है। इस परंपरा की शुरुआत मुगलों के समय हुई बताई जाती है। बुजुर्गों के अनुसार, चंबल घाटियों के रास्ते जब मुगल सैनिक स्थानीय बस्तियों पर आक्रमण करते थे, तब नगरवासियों ने आत्मरक्षा के रूप में हिंगोट नामक अग्निबाणों का प्रयोग शुरू किया। समय के साथ यह आत्मरक्षा का तरीका धीरे-धीरे लोक परंपरा और धार्मिक आयोजन में बदल गया।

युद्ध की तैयारी महीनों पहले शुरू होती है
हिंगोट युद्ध की तैयारी नवरात्र से ही आरंभ हो जाती है। योद्धा बड़नगर, इंगोरिया, चंबल और आसपास के जंगलों से हिंगोरिया वृक्ष के फल इकट्ठा करते हैं। इन फलों को सुखाकर अंदर का गूदा निकालकर खोखला बना दिया जाता है। इसके बाद उसमें बारूद भरी जाती है, एक सिरे को मिट्टी से बंद कर बत्ती लगाई जाती है और दिशा निर्धारण के लिए बांस की पतली डंडी बांधी जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में सूझबूझ, अनुभव और परंपरा का ज्ञान आवश्यक होता है।
परंपरा का वैज्ञानिक और धार्मिक स्वरूप
इस युद्ध की शुरुआत भगवान देवनारायण के दर्शन के बाद होती है। इसके पीछे धार्मिक विश्वास यह है कि युद्ध के दौरान ईश्वर स्वयं योद्धाओं की रक्षा करते हैं। यह आयोजन जितना धार्मिक महत्व रखता है, उतना ही लोकजीवन की वैज्ञानिक और कलात्मक समझ का प्रतीक भी है। हिंगोट का निर्माण, बारूद की मात्रा, और दिशा निर्धारण का कौशल पीढ़ियों से हस्तांतरित होता आया है।

बढ़ती लागत और घटती रुचि
तुर्रा दल के पूर्व योद्धा गोपाल खत्री के अनुसार, पहले एक हिंगोट मात्र 8 से 10 रुपये में बन जाता था, लेकिन अब इसकी लागत 18 से 20 रुपये तक पहुंच चुकी है। अब नई पीढ़ी खुद हिंगोट तैयार करने में रुचि नहीं लेती, जिससे पारंपरिक ज्ञान धीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा है। योद्धाओं को अब हिंगोरिया वृक्ष के फल लाने के लिए बड़नगर, उज्जैन, बदनावर और धार जैसे दूरस्थ इलाकों तक जाना पड़ता है, क्योंकि आसपास के जंगलों में यह वृक्ष अब बहुत कम बचे हैं।
पर्यावरण और परंपरा दोनों के लिए चेतावनी
तुर्रा योद्धा राज वर्मा ने बताया कि यदि हिंगोरिया वृक्षों की कटाई इसी तरह जारी रही, तो आने वाले वर्षों में यह परंपरा निभाना भी कठिन हो जाएगा। इस परंपरा को बचाने के लिए पर्यावरण संरक्षण आवश्यक है। हिंगोट युद्ध केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव के सह-अस्तित्व का प्रतीक है, जहां वृक्षों, मिट्टी और अग्नि के माध्यम से लोक संस्कृति अपनी पहचान बनाए रखती है।

प्रशासन की निगरानी और सुरक्षा व्यवस्था
इस बार युद्ध के दौरान सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम किए गए थे। देपालपुर के एसडीएम राकेश मोहन त्रिपाठी ने बताया कि पांच योद्धा घायल हुए हैं, पर सभी खतरे से बाहर हैं। प्रशासन की ओर से एम्बुलेंस, अग्निशमन दल और पुलिसकर्मी पूरे आयोजन के दौरान सतर्क रहे। इस बार युद्ध आधे घंटे पहले ही समाप्त कर दिया गया, ताकि अंधेरा बढ़ने के बाद किसी भी तरह की दुर्घटना से बचा जा सके।
साहस और परंपरा का जीवंत संगम
धोक पड़वा के दिन दो दल—तुर्रा और कलंगी—एक मैदान में आमने-सामने आते हैं। शाम पांच बजे से लेकर सात बजे तक दोनों दल अग्निबाणों से वार करते हैं। दर्शक दूर खड़े होकर इस अद्भुत दृश्य का आनंद लेते हैं। यह युद्ध जानलेवा नहीं होता, बल्कि शौर्य, परंपरा और लोक आस्था का प्रदर्शन होता है। इसमें जीत या हार का कोई प्रश्न नहीं होता, केवल साहस और परंपरा का गौरव प्रदर्शित किया जाता है।
गौतमपुरा का यह हिंगोट युद्ध आधुनिक युग में भी लोक संस्कृति का जीवंत उदाहरण है, जहां खतरे के बावजूद लोग परंपरा निभाने के लिए आगे आते हैं। यह आयोजन न केवल वीरता की मिसाल है, बल्कि सामूहिकता, श्रद्धा और साहस की भी अद्भुत गाथा है, जो हर वर्ष दीपावली के बाद आस्था की लौ को और प्रज्वलित करती है।
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