हिंदुत्व का सार सत्य, प्रेम और अपनापन है: डॉ. मोहन भागवत
नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने बुधवार को कहा कि हिंदुत्व किसी संकीर्णता का नाम नहीं है, बल्कि सत्य, प्रेम और अपनापन उसका सार है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि समाज और जीवन में संतुलन ही धर्म है और यही संतुलन भारत की परंपरा का मध्यम मार्ग कहलाता है, जो वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
डॉ. भागवत विज्ञान भवन, नई दिल्ली में संघ की शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा: नए क्षितिज’ को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि संघ का कार्य किसी के विरोध में नहीं है, बल्कि निष्ठा और सज्जनों से मैत्री की भावना के साथ आगे बढ़ा है।
संघ कार्य का आधार सात्विक प्रेम
डॉ. भागवत ने स्पष्ट किया कि संघ स्वयंसेवक सुविधा-भोगी नहीं होता। उसे न कोई प्रोत्साहन मिलता है, न लाभ, बल्कि समाज-कार्य में आनंद का अनुभव ही उसका प्रेरणास्रोत है। उन्होंने कहा कि संघ का आधार शुद्ध सात्विक प्रेम है, जो मोह नहीं बल्कि समाज के प्रति श्रद्धा और सेवा की भावना है।
#WATCH | Delhi: RSS chief Mohan Bhagwat says, "...There is no conversion in Dharma. Dharma is a true element, on the basis of which everything works. We have to move forward with Dharma and not by preaching or conversion but by example and practice. Therefore, the life mission of… pic.twitter.com/TJoaDWN5Cn
— ANI (@ANI)#WATCH | Delhi: RSS chief Mohan Bhagwat says, "...There is no conversion in Dharma. Dharma is a true element, on the basis of which everything works. We have to move forward with Dharma and not by preaching or conversion but by example and practice. Therefore, the life mission of… pic.twitter.com/TJoaDWN5Cn
— ANI (@ANI) August 27, 2025
उपभोक्तावादी विचारों ने बिगाड़ा जीवन का संतुलन
सरसंघचालक ने उपभोक्तावाद और जड़वाद की आलोचना करते हुए कहा कि पिछले ढाई-तीन सौ वर्षों में जीवन की भद्रता कम हुई है। महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सात सामाजिक पाप—काम बिना परिश्रम, आनंद बिना विवेक, ज्ञान बिना चरित्र, व्यापार बिना नैतिकता, विज्ञान बिना मानवता, धर्म बिना बलिदान और राजनीति बिना सिद्धांत—आज और अधिक बढ़ गए हैं।
धर्म का व्यापक स्वरूप
डॉ. भागवत ने कहा कि धर्म का अर्थ केवल पूजा, पंथ या कर्मकांड तक सीमित नहीं है। धर्म विविधता को स्वीकार करने और संतुलित जीवन जीने की शिक्षा देता है। उन्होंने कहा कि धर्म का वास्तविक स्वरूप यही है कि मनुष्य, समाज और प्रकृति सभी की अपनी मर्यादा है और उनका सम्मान करना ही सच्चा धर्म है। यही मध्यम मार्ग दुनिया को शांति और समन्वय की राह दिखा सकता है।
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विरोध से मान्यता तक की यात्रा
संघ की 100 साल की यात्रा को याद करते हुए उन्होंने कहा कि स्वयंसेवकों ने उपेक्षा और विरोध के वातावरण में भी अपनी निष्ठा के बल पर संघ को मजबूत किया। कई कटु अनुभवों के बावजूद स्वयंसेवकों ने समाज के लिए सात्विक प्रेम बनाए रखा। उन्होंने कहा कि अब स्थिति बदल गई है, समाज की मान्यता बढ़ी है और विरोध बहुत कम हो गया है।
दुर्जनों से करुणा और सज्जनों से मैत्री
डॉ. भागवत ने संघ की कार्यपद्धति को समझाते हुए कहा कि संघ सज्जनों से मैत्री, दुर्जनों से करुणा, अच्छे कार्य पर मुदिता (आनंद) और बुरे कर्म करने वालों की उपेक्षा की नीति पर चलता है।
स्वयंसेवक का नि:स्वार्थ भाव
उन्होंने कहा कि लोग अक्सर पूछते हैं कि संघ से जुड़ने पर उन्हें क्या मिलेगा। इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा—“तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, बल्कि जो है वो भी समाज के लिए लगाना होगा।” यह कार्य हिम्मत वालों के लिए है और संघ स्वयंसेवक इसी नि:स्वार्थ सेवा भाव से कार्य करता है। समाजहित में कार्य करने से जो जीवन की सार्थकता और आनंद प्राप्त होता है, वही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
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