एच-1बी वीजा शुल्क वृद्धि पर ट्रंप प्रशासन के खिलाफ याचिका, अदालत में सुनवाई शुरू

वॉशिंगटन, 4 अक्टूबर।
अमेरिका में एच-1बी वीजा आवेदन शुल्क को 1,00,000 अमेरिकी डॉलर (करीब 88 लाख रुपये) तय करने के निर्णय ने देशभर में बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है। इस फैसले के खिलाफ स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं, धार्मिक संगठनों, विश्वविद्यालयों और पेशेवर समूहों ने सिएटल की संघीय अदालत में मुकदमा दायर किया है। याचिकाकर्ताओं ने इसे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन की "प्रतिभा और नवाचार पर सीधी चोट" बताया है।

publive-image

नवाचार और शिक्षा व्यवस्था पर हमला बताया गया

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यदि यह नीति लागू होती है, तो अमेरिका की "प्रतिभा-आधारित अर्थव्यवस्था" कमजोर पड़ जाएगी और कई संस्थानों की संचालन क्षमता बुरी तरह प्रभावित होगी। उन्होंने अदालत से तत्काल स्थगन आदेश (Stay Order) जारी करने की मांग की है। मुकदमे में यह तर्क दिया गया है कि इस नीति से विश्वविद्यालयों, अस्पतालों और तकनीकी कंपनियों के लिए योग्य और अंतरराष्ट्रीय पेशेवरों को नियुक्त करना असंभव हो जाएगा।

अदालत में क्या कहा गया

सैन फ्रांसिस्को स्थित यूएस डिस्टि्रक्ट कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया है कि ट्रंप प्रशासन द्वारा घोषित यह शुल्क वृद्धि न केवल "नियोक्ताओं और श्रमिकों" बल्कि "संघीय एजेंसियों" के लिए भी अराजकता (Chaos) की स्थिति पैदा कर रही है। याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि एच-1बी वीजा लंबे समय से अमेरिकी अस्पतालों, विश्वविद्यालयों और तकनीकी कंपनियों के लिए दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को जोड़ने का प्रमुख माध्यम रहा है।

संगठनों की आपत्ति

डेमोक्रेसी फॉरवर्ड फाउंडेशन’ और ‘जस्टिस एक्शन सेंटर’ ने संयुक्त बयान में कहा कि अगर अदालत ने इस फैसले पर रोक नहीं लगाई, तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।
उनके अनुसार—

  • अस्पतालों को स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी का सामना करना पड़ेगा,
  • चर्चों में पादरियों की कमी होगी,
  • विश्वविद्यालयों में योग्य शिक्षकों की उपलब्धता घटेगी,
  • और उद्योग जगत को अपने प्रमुख नवोन्मेषकों को खोने का खतरा रहेगा।

दोनों संगठनों ने अदालत से आग्रह किया कि वह इस आदेश पर तुरंत रोक लगाए, ताकि शिक्षा, शोध और रोजगार पर गंभीर असर न पड़े।

ट्रंप प्रशासन का पक्ष

ट्रंप प्रशासन ने अपने फैसले का बचाव करते हुए कहा है कि यह नीति अमेरिकी नागरिकों की नौकरियों की रक्षा के लिए लाई गई है। सरकार का कहना है कि कई कंपनियां एच-1बी वीजा का दुरुपयोग करके विदेशी कर्मचारियों को कम वेतन पर काम पर रखती हैं, जिससे अमेरिकी श्रमिकों के रोजगार अवसर प्रभावित होते हैं। प्रशासन का दावा है कि ऊंची फीस लगाने से केवल वही संस्थान आवेदन करेंगे जिन्हें वास्तव में योग्य विदेशी विशेषज्ञों की जरूरत होगी।

विशेषज्ञों की राय

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इतनी ऊंची फीस केवल बड़ी कंपनियों के लिए लाभदायक होगी, जबकि छोटे विश्वविद्यालयों, स्टार्टअप्स और गैर-लाभकारी संगठनों के लिए यह दरवाजे पूरी तरह बंद कर देगी। यह कदम अमेरिका के लिए उस वैश्विक प्रतिभा को आकर्षित करने में बड़ी बाधा बन सकता है, जिस पर अब तक उसकी तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति निर्भर रही है।

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह निर्णय नवाचार, अनुसंधान और रोजगार सृजन के क्षेत्र में गंभीर बाधाएं खड़ी करेगा। कई विश्वविद्यालयों ने भी चेताया है कि उच्च शुल्क के कारण विदेशी प्रोफेसरों और शोधकर्ताओं की नियुक्ति असंभव हो जाएगी, जिससे अमेरिका की अकादमिक श्रेष्ठता को नुकसान होगा।

publive-image

अदालत का फैसला तय करेगा दिशा

कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह मामला केवल शुल्क निर्धारण का नहीं बल्कि अमेरिकी इमिग्रेशन नीति की दिशा तय करने वाला निर्णय साबित हो सकता है। यदि अदालत ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में आदेश दिया, तो ट्रंप प्रशासन को यह नीति वापस लेनी पड़ सकती है। लेकिन यदि अदालत ने सरकार का पक्ष माना, तो यह अमेरिका की वीजा व्यवस्था में अब तक का सबसे बड़ा बदलाव साबित होगा।

अमेरिका में करीब 75% एच-1बी वीजा भारतीय पेशेवरों को मिलते हैं। इसलिए इस नीति का सीधा असर भारत के लाखों इंजीनियरों, डॉक्टरों, प्रोफेसरों और शोधकर्ताओं पर भी पड़ेगा।