देवोत्थान एकादशी : पंच महाभूतों के जागरण और दैवी चेतना के उदय का पर्व
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“उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविंद, उत्तिष्ठ गरुडध्वज।
उत्तिष्ठ कमलाकान्त, त्रैलोक्यं मंगलं कुरु॥”
हे गोविंद, जागिए। हे गरुड़ध्वज, जागिए।
हे लक्ष्मीकान्त, जागिए और तीनों लोकों का मंगल कीजिए।
देवोत्थान एकादशी, जिसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है, वर्ष का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। इस दिन भगवान विष्णु चार महीने के योगनिद्रा से जागते हैं। लोकव्यवहार में यह दिन शुभ कार्यों के पुनः प्रारंभ का प्रतीक माना जाता है। किंतु इस पर्व का आध्यात्मिक और पर्यावरणीय अर्थ इससे कहीं गहरा है — यह केवल भगवान के जागरण का दिन नहीं, बल्कि पंचमहाभूतों के पुनर्जागरण का पर्व भी है।
भगवान यानी पंचतत्वों का रूप
लेखक मोहन नागर बताते हैं कि “भगवान” शब्द ही अपने भीतर सृष्टि के पांच मूल तत्वों का सार समेटे हुए है —
भ से भूमि (पृथ्वी),
ग से गगन (आकाश),
वा से वायु,
अ से अग्नि,
और न से नीर (जल)।
यही पंचतत्व सृष्टि की आधारशिला हैं, जिनसे जीवन की रचना और संतुलन संभव है। वर्षा ऋतु के बाद जब धरती कीचड़ रहित होकर समृद्ध होती है, आकाश स्वच्छ और निर्मल हो जाता है, वायु मंद और शीतल बहने लगती है, अग्नि (ऊर्जा) का प्रवाह बढ़ जाता है और नदियों-कुओं का जल भी शुद्ध हो जाता है — तब यह संकेत होता है कि प्रकृति पुनः संतुलित और जाग्रत अवस्था में लौट आई है।
प्रकृति और धर्म का सुंदर संगम
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यही रही है कि यहाँ मौसम परिवर्तन और ऋतु-संधि के साथ धार्मिक पर्व जुड़े हुए हैं। हमारे पूर्वजों ने इन उत्सवों के माध्यम से न केवल प्रकृति की आराधना की, बल्कि समाज को पर्यावरण और स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूक किया।
देवोत्थान एकादशी इसी परंपरा का जीवंत उदाहरण है। इस दिन चातुर्मास की समाप्ति के साथ साधु-संत पुनः यात्राओं पर निकलते हैं। साथ ही, समाज में विवाह, गृहप्रवेश, मुंडन जैसे शुभ कार्यों की शुरुआत भी इसी दिन से होती है।
तुलसी विवाह और पर्यावरण का संदेश
देवोत्थान एकादशी को तुलसी विवाह का दिन भी कहा जाता है। घरों में तुलसी पूजन किया जाता है, क्योंकि तुलसी केवल एक धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि पर्यावरण और स्वास्थ्य का संरक्षक पौधा है। तुलसी का पौधा वायु को शुद्ध करता है और मन को शांत करता है। इसी कारण इस दिन तुलसी का दान और रोपण का विशेष महत्व है।
तुलसी विवाह के माध्यम से हमारे पूर्वजों ने यह संदेश दिया कि हर घर में पर्यावरण का प्रतिनिधि पौधा होना चाहिए, ताकि प्रकृति और जीवन का संतुलन बना रहे।
नवीन अन्न और औषधियों का आरंभ
देवोत्थान एकादशी के साथ ही नए अन्न और औषधियों का सेवन आरंभ किया जाता है। खेतों में नई फसलें आने लगती हैं, इसलिए इस दिन बेर, भाजी और आँवला जैसे प्रतीक फल-भाजियों की पूजा की जाती है।
इस अवसर पर गन्ने की पूजा करके गुड़ और शक्कर निर्माण कार्य की शुरुआत भी की जाती है। यह सब प्रकृति के साथ मनुष्य के सामंजस्य का प्रतीक है — जैसे-जैसे ऋतु बदलती है, वैसे-वैसे आहार, स्वास्थ्य और जीवनशैली में भी संतुलन आवश्यक होता है।
स्वास्थ्य और सर्दियों का आरंभ
देवोत्थान एकादशी के बाद से शीत ऋतु के तीन माह शुरू हो जाते हैं, जिन्हें आयुर्वेद में स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे उपयुक्त माना गया है। इस समय शरीर की कार्यक्षमता और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, इसलिए यह समय परिश्रम, साधना और नए कार्यों के लिए अनुकूल होता है।
दैवी शक्ति का जागरण और राक्षसी प्रवृत्तियों का अंत
इस दिन भगवान विष्णु के जागरण का अर्थ केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक चेतना का जागरण भी है। देवोत्थान का वास्तविक संदेश यही है कि दैवी शक्ति का जागरण हो और राक्षसी वृत्तियों — जैसे आलस्य, अज्ञान और नकारात्मकता — का अंत हो।
देवोत्थान एकादशी हमें सिखाती है कि सृष्टि के पंचतत्वों का संतुलन ही जीवन का संतुलन है। जब प्रकृति, मनुष्य और देवत्व — तीनों जाग्रत और समरस होते हैं, तभी संसार में मंगल की स्थापना होती है।
पंच महाभूत सबका मंगल करें — यही इस पावन पर्व की शुभकामना है।
(लेखक : मोहन नागर, उपाध्यक्ष, मध्यप्रदेश जन अभियान परिषद)
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