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April 19, 2025 7:32 PM

न्यायपालिका में एक दूसरे को बचाने की दुरभिसंधि

  • अजय सेतिया
    राजनीति इतनी गंदी हो गई है कि देश आंखों देखी मक्खी निगलने को मजबूर है। देश पर पहले मुगलों और अंग्रेजों ने राज किया और अब तथाकथित न्यायपालिका के कुछ घराने राज कर रहे हैं। अंग्रजों से आजादी के समय 299 चुने हुए और राज्यों के मनोनीत प्रतिनिधियों ने तीन साल की कड़ी मेहनत से जिस लोकतंत्र की संरचना की थी, उसमे विधायिका, कार्यपालिका के काम और अधिकार क्षेत्र तय किए गए थे। संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस और अन्य जजों की नियुक्ति का प्रावधान है, जिसमें लिखा है कि राष्ट्रपति सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्टों के जजों से परामर्श कर सकते हैं। लेकिन 1993 में सुप्रीमकोर्ट ने एक जजमेंट दिया कि सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस का परामर्श राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा। राष्ट्रपति को उनकी सिफारिश पर दस्तखत करने ही होंगे। जबकि संविधान सभा ने यह अधिकार राष्ट्रपति को दिया था, जो चुनी हुई सरकार की सिफारिश पर नियुक्तियां करेंगे, वह चाहें तो चीफ जस्टिस से भी सलाह ले सकते थे| 1993 तक चुनी हुई सरकारें ही जजों की नियुक्तियां करती थीं।
    यह बात तब बिगड़ी, जब 24 अप्रेल 1973 में सुप्रीमकोर्ट की 13 जजों की बेंच ने केशवानंद भारती के केस में 6 के मुकाबले सात जजों ने फैसला दिया कि संसद संविधान के मूल ढांचे में फेरबदल नहीं कर सकती| यह चुनी हुई संसद के खिलाफ फैसला था, क्योंकि जैसे संविधान सभा चुनी हुई थी, वैसे ही संसद चुनी हुई है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह संसद को नीचा दिखाने वाला और संसद की सर्वोच्चता को खत्म करने वाला फैसला था। दो दिन बाद ही चीफ जस्टिस सर्व मित्र सीकरी रिटायर हो रहे थे,परंपरा वरिष्ठतम जज को चीफ जस्टिस बनाने की थी,वरिष्ठता क्रम में पहले नंबर के जस्टिस जयशंकर मणिलाल शेरत, दूसरे नंबर के जस्टिस केएस हेगड़े और तीसरे नंबर के जस्टिस ए.एन ग्रोवर उन सात जजों में शामिल थे, जिन्होंने संसद के अधिकार के खिलाफ फैसला दिया था| इंदिरा गांधी ने इन तीनों की वरिष्ठता की अनदेखी करके चौथे नंबर के जस्टिस एएन रे को चीफ जस्टिस नियुक्त कर दिया। जस्टिस रे उन छह जजों में शामिल थे, जिन्होंने संसद के सर्वोच्च अधिकार का समर्थन किया था|चीफ जस्टिस बनने के बाद जस्टिस रे ने केशवानंद भारती केस के फैसले की समीक्षा के लिए बेंच का गठन किया था, लेकिन बेच के कई सदस्य ही बेंच में शामिल होने को तैयार नहीं हुए और उस पर फिर कभी सुधारात्मक फैसला नहीं हो सका। केशवानंद भारती केस का फैसला हमेशा से विवादास्पद रहा है, क्योंकि इस फैसले ने संविधान सभा की ओर से तय की गई संसद की सर्वोच्चता खत्म कर दी है और सुप्रीमकोर्ट सर्वोच्च हो गई है।
    संसद पर हमले के बाद राष्ट्रपति और सरकार के अधिकारों पर हमला तब हुआ जब 1993 में सुप्रीमकोर्ट की 9 सदस्यीय बेंच ने फैसला दिया कि जजों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस की राय को तरजीह दी जाए, जबकि कहने का मतलब यह था कि चीफ जस्टिस की सिफारिश को अंतिम और बाध्यकारी माना जाए, जबकि संविधान में चीफ जस्टिस से राय लिया जाना ही बाध्यकारी नहीं था, उनकी राय को बाध्यकारी मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता। उस समय नरसिंह राव की कमजोर सरकार थी, जो कुछ नहीं कर सकी, जबकि सरकार चाहती तो संसद से सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले खिलाफ प्रस्ताव पास करवा कर सुप्रीमकोर्ट के जजों के फैसले को ठुकरा सकती थी, क्योंकि यह फैसला संविधान की मूल भावना के खिलाफ था।
    1998 में सुप्रीमकोर्ट के जजों ने पांच जजों का कोलिजियम बना लिया ताकि यह तर्क दिया जा सके कि चीफ जस्टिस की राय उनकी व्यक्तिगत राय नहीं है| तबसे सरकार मजबूर है और कोलिजियम ने जजों के बेटों को जज बनाने का न्यायपालिका में परिवारवाद का ढांचा खड़ा कर लिया है। न्यायपालिका के परिवारवाद को तोड़ने के लिए मोदी सरकार ने संसद से सर्वसम्मति से बिल पास करवा कर “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” नाम का ढांचा खड़ा किया था। सुप्रीमकोर्ट ने मनमानी करते हुए “राष्ट्र्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” को असंवैधानिक घोषित कर दिया। यह एक संविधान संशोधन बिल के तहत बना हुआ क़ानून था, जिसे संसद के दो तिहाई सदस्यों ने समर्थन दे कर क़ानून बनाया था। क्या यह क़ानून संविधान की मूल ढाँचे के खिलाफ था, अगर यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है, तो कोलिजियम का गठन संविधान के किस प्रावधान के तहत किया गया था| संविधान ने तो जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को दिया था|यह तो अनार्की है कि जज खुद ही जज नियुक्त करते हैं।
    अब जब दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से 25 करोड़ रूपए कैश पकड़े गए हैं, और सुप्रीमकोर्ट का कोलिजियम जस्टिस वर्मा को बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा है, तो देश में न्यायपालिका के खिलाफ भयंकर गुस्सा है। कोशिश हो रही है कि संसद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का संविधान संशोधन बिल फिर से पास करके कोलिजियम को भंग करे और संसद की सर्वोच्चता बहाल करे। ऐसी मांग इसलिए भी उठ रही है क्योंकि आए दिन न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की खबरें आ रही हैं और न्यायपालिका भ्रष्ट जजों को बचाने की हर संभव कोशिश कर रही है। सिर्फ चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, कोलिजियम और कई वरिष्ठ वकील ही नही, कई पूर्व जज भी भ्रष्ट जजों का बेशर्मी से बचाव कर रहे हैं। पूर्व जस्टिस मार्कन्डेय काटजू का बयान पूरे न्यायिक क्षेत्र को शर्मसार करने वाला है, उन्होंने कहा है कि यशवंत वर्मा को फंसाने के लिए उनके खिलाफ षड्यंत्र रचा गया था। सिर्फ यशवंत वर्मा क्यों, पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट की पूर्व जज जस्टिस निर्मल यादव का केस अपने सामने है, उन्हें 15 लाख की रिश्वत भेजी गई थी| वह कैश गलती से उनकी हमनाम दूसरी जज जस्टिस निर्मल कौर के घर पहुंच गया था। रिश्वत पहुंचाने वाले हरियाणा सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता संजीव बंसल को तुरंत एहसास हो गया था कि उनके क्लर्क ने पैसा गलत जगह पहुंचा दिया है। उन्होंने जस्टिस निर्मल कौर को फोन कर के कहा कि वह पैकेट गलती से उन्हें पहुंच गया, उसे जस्टिस निर्मल यादव के यहां डिलीवर करना था। तब तक जस्टिस निर्मल कौर पुलिस को सूचित कर चुकी थी, इसलिए केस रजिस्टर्ड हो गया|इस बीच संजीव बंसल मर चुका है और 16 साल बाद शनिवार को सीबीआई कोर्ट ने जस्टिस निर्मल यादव को बरी कर दिया| जस्टिस यादव अपना कार्यकाल पूरा कर के रिटायर हुई। सीबीआई उनके रिटायर होने का इन्तजार करती रही।
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