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हिन्दू समाज की जागृित में विहिप की भूिमका

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  • विनोद बंसल
    देश की राजनैतिक स्वतंत्रता के पश्चात कथित सेक्युलर वाद के नाम पर हिन्दू समाज पर बढ़ते अन्याय तथा ईसाईयों व मुसलमानों के तुष्टिकरण के बीच 1957 में आई नियोगी कमीशन रिपोर्ट आई। इस में ईसाई मिशनरियों द्वारा छल, कपट, लोभ, लालच व धोखे से पूरे देश में हिंदुओं के धर्मांतरण की सच्चाई सामने आने के बावजूद, तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा धर्मांतरण के विरुद्ध केंद्रीय कानून बनाने से स्पष्ट मना कर दिया गया। उधर विदेशों में रहने वाला हिन्दू समाज भी अपनी विविध समस्याओं के समाधान हेतु भारत की ओर ताक तो रहा था किन्तु, उसके प्रति भी केंद्र सरकार के उदासीन रवैए ने निराश ही किया। ऐसे में हिन्दू समाज को संगठित कर धर्म रक्षा करने तथा हिन्दू धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की रक्षा हेतु, साठ वर्ष पूर्व, जन्माष्टमी (अंग्रेजी दिनांक अनुसार 29 अगस्त 1964) को विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई।
    राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक और हिदुस्तान समाचार के संस्थापक श्री दादासाहेब आप्टे जी के साथ, श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पावन अवसर पर, पवई, मुम्बई स्थित पूज्य स्वामी चिनमयानन्द जी के आश्रम सांदीपनि साधनालय में पूज्य स्वामी चिनमयानन्द, राष्ट्रसंत तुकडो जी महाराज, सिख सम्प्रदाय से माननीय मास्टर तारा सिंह, जैन सम्प्रदाय से पूज्य सुशील मुनि, गीता प्रेस गोरखपुर से हनुमान प्रसाद पोद्दार, के एम मुंशी तथा पूज्य श्री गुरुजी सहित 40-45 अन्य महानुभाव भी उपस्थित थे।
    इसी बैठक में 1. हिन्दू समाज को संगठित और जागृत करने, 2. उसके स्वत्वों, मानबिन्दुओं तथा जीवन मूल्यों की रक्षा और संवर्धन करने तथा; 3. विदेशस्थ हिंदुओं से संपर्क स्थापित कर उन्हें सुदृढ़ बनाने व उनकी सहायता करने सम्बन्धी विश्व हिंदू परिषद के तीन मुख्य उद्देश्य तय किए गए। हिन्दू की परिभाषा करते हुए कहा गया कि “जो व्यक्ति भारत में विकसित हुए जीवन मूल्यों में आस्था रखता है या जो व्यक्ति स्वयं को हिन्दू कहता है वह हिन्दू है”।
    22 से 24 जनवरी 1966 को कुम्भ के अवसर पर 12 देशों के 25 हजार प्रतिनिधियों की सहभागिता के साथ प्रथम विश्व हिंदू सम्मेलन प्रयाग में सम्पन्न हुआ। इसमें 300 प्रमुख संतों के साथ पहली बार प्रमुख शंकराचार्य भी एक साथ आए और धर्मांतरण पर रोक व परावर्तन (घरवापसी) का संकल्प लिया गया। मैसूर के महाराज मा. चामराज जी वाडियार को प्रथम अध्यक्ष व दादासाहब आप्टे को पहले महामंत्री के रूप में घोषित कर विहिप की प्रबंध समिति की घोषणा भी हुई। इस सम्मेलन में जहां परावर्तन को मान्यता देने का ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित हुआ वहीँ विहिप के बोध वाक्य “धर्मो रक्षति रक्षितः” और बोध चिह्न “अक्षय वटवृक्ष” भी तय हुआ।
    बाबा साहिब डॉ भीमराव अम्बेडकर का मत था कि यदि देश के संत महात्मा मिलकर यह घोषित कर दें कि हिन्दू धर्म-शास्त्रों में छुआछूत का कोई स्थान नहीं है तो इस अभिशाप को समाप्त किया जा सकता है। इसी को ध्यान में रखते हुए 13-14 दिसम्बर 1969 के उडुपी धर्म संसद में संघ के तत्कालीन सर-संघचालक श्री गुरूजी के विशेष प्रयासों के परिणाम स्वरूप, भारत के प्रमुख संतों ने एकस्वर से “हिन्दव: सोदरा सर्वे, ना हिन्दू पतितो भवेत्” के उद्घोष के साथ सामाजिक समरसता का ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया। 1994 में काशी में हुई धर्म संसद का निमंत्रण डोम राजा को देने पूज्य संत ना सिर्फ स्वयं चलकर गए बल्कि उनके घर का प्रसाद ग्रहण किया तथा अगले दिन डोम राजा धर्म संसद के अधिवेशन में संतों के मध्य बैठे और संतों ने उन्हें पुष्प हार पहनाकर स्वागत किया । इस धर्म संसद में 3500 संत उपस्थित थे। वनवासी, जनजाति, अति पिछड़ी व पिछड़ी जाति के हजारों लोगों को ग्राम पुजारी के रूप में प्रशिक्षण देकर उनका समय समय पर अभिनन्दन व मंदिरों में पुरोहित के रूप में नियुक्ति, विहिप के ग्राम पुजारी प्रशिक्षण अभियान के कारण ही संभव हुई।
    9 नवम्बर 1989 में श्रीराम जन्मभूमि का शिलान्यास एक अनुसूचित जाति के कार्यकर्ता कामेश्वर चौपाल द्वारा कराए जाने के अतिरिक्त, देश भर में आयोजित समरसता यज्ञ, समरसता यात्राएं, समरसता गोष्ठियां, हिन्दू परिवार मित्र योजना, अनुसूचित जाति व जन जातियों के लिए छात्रावास इत्यादि अनेक योजनाओं व कार्यक्रमों के माध्यम से हिन्दू समाज के बीच व्याप्त छूआछूत के अभिशाप से मुक्ति हेतु अभूतपूर्व कार्य किए हैं। सन् 2003 से लगातार देशभर में भगवान वाल्मीकि, संत रविदास तथा संविधान निर्माता डॉ भीमराव अम्बेडकर इत्यादि महापुरुषों, जिन्होंने देश की समरसता में योगदान दिया, की जयन्तियां व्यापक रूप से मनाई जा रही हैं। इन सब कार्यक्रमों के परिणाम स्वरूप अब संत समाज सहज रूप से वंचित बस्तियों में प्रवास, प्रवचन व सह-भोज सहजता से करते हैं।
    द्वितीय विश्व हिंदू सम्मेलन भी प्रयाग की पावन धरा पर 27 से 29 जनवरी 1979 को 18 देशों के 60 हज़ार प्रतिनिधियों की सहभागिता से सम्पन्न हुआ। इसका उदघाटन पूज्य दलाई लामा जी ने किया। तथा उनका स्वागत ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य जी ने किया। यह भी एक ऐतिहासिक प्रसंग था।
    देश के वनवासी, गिरिवासी व नगरवासियों के कुम्भ के रूप में असम के जोरहाट में 27 से 29 मार्च 1970 में देश की सभी प्रमुख तीर्थों व 45 नदियों के जल से एकात्म हुए इस सम्मेलन में अनेक पूज्य संत-महात्माओं व पूर्वोत्तर के विचारकों के साथ नागारानी गाइडिन्ल्यु ने यह घोषणा की कि प्रकृति पूजक वनवासी समाज जिसे ईसाई मिशनरियां अपने चंगुल में फंसा रही हैं, हिन्दू समाज का ही अभिन्न अंग है। 1982 में श्री अशोक सिंघल विश्व हिन्दू परिषद के पदाधिकारी बने। व्यापक जन जागरण के कार्यक्रम होने लगे। 1983 में हुई एकात्मता यात्रा में तो देश के 6 करोड़ लोगों ने सहभाग किया। अप्रैल 1984 में नई दिल्ली में प्रथम धर्म संसद का अधिवेशन संपन्न हुआ।
    विश्व हिंदू परिषद द्वारा समाज के सहयोग से देश भर में 45 सौ से अधिक सेवा प्रकल्प भी चलाए जा रहे हैं। इनमें 31 प्रांतों के 93 हजार स्थानों पर 840 संस्कार शालाओं में 17 हजार बच्चे पढ़ रहे हैं। इनके अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, स्वावलंबन केंद्र, आवासी छात्रावास, अनाथालय, चिकित्सा केंद्र, कम्प्यूटर, सिलाई, कढ़ाई प्रशिक्षण केंद्र, विवाह केंद्र इत्यादि प्रमुख हैं।
    गौ रक्षा, गौ पालन व गौ सम्वर्धन के क्षेत्र में विश्व हिन्दू परिषद् ने अनेक कार्य किए हैं। देश में 60 स्थानों पर गौवंश की देशी नस्लों का सम्वर्धन, 40 स्थानों पर पंचगव्य आधारित औषधि निर्माण केंद्र तथा तीन पंचगव्य अनुसंधान केंद्र इस समय कार्यरत हैं। 25 लाख गौवंश की कसाइयों से मुक्ति, अनेक राज्यों में गौवंश हत्या के विरुद्ध कठोर कानून की व्यवस्था और गौपालन से स्वावलंबन की ओर योजना के अन्तर्गत पांच गायों से 50 हजार मासिक की कमाई तथा गौवंश आधारित ऋण मुक्त, कृषि व रोजगार युक्त युवक की दिशा में विहिप ने मह्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। अनेक राज्यों में गौ रक्षा हेतु कठोर कानून भी बनवाए हैं।
    भारत धर्म यात्राओं का देश है जिसकी आत्मा तीर्थों में वास करती है। इन यात्राओं के माध्यम से ही देश, धर्म व समाज की एकता, अखण्डता और समरसता प्रतिबिम्बित होती है। बात चाहे कांवड़ यात्रा की हो या कैलाश मान सरोवर की, अमर नाथ यात्रा हो या गोवर्धन परिक्रमा, जगन्नाथ की नव कलेवर यात्रा हो या सिन्धु यात्रा, श्रीराम जानकी विवाह बारात यात्रा हो या बाबा अमरनाथ की यात्रा, इन सभी को सस्ती, सफल, सुखद, संस्कारित व आध्यात्मिक स्वरूप देने में विश्व हिन्दू परिषद् के धर्मं यात्रा महासंघ ने वर्ष 1995 से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शासन-प्रशासन व सम्बन्धित सरकारों के साथ अनवरत संपर्क के माध्यम से इन्हें व्यवस्थित भी किया गया है। अनेक मृत प्राय: यात्राओं को पुनर्जीवित भी किया। अपने 60 वर्षों की विकास यात्रा में विहिप ने अनेक जन जागरण अभियान चलाए जो वैश्विक कीर्तिमान बन गए। 1984 में प्रारम्भ हुए श्री राम जन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन ने देश के लाखों गाँवों के 65 करोड़ लोगों को जोडा। सड़क से संसद व सर्वोच्च न्यायालय तक अपनी आवाज बुलंद कर 496 वर्षों के संघर्ष के उपरांत, देश के स्वाभिमान का पुनरजागरण करते हुए, 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में रामलला कि प्राण प्रतिष्ठा ने इस ऐतिहासिक दिवस को स्वर्णाक्षरों में दर्ज करा दिया।
    1995 में जब आतंकियों ने बाबा अमरनाथ की यात्रा को बंद करने की धमकी देते हुए यह कहा कि यदि कोई आएगा तो वापस नहीं जाएगा। बजरंगदल के आह्वान पर 51 हजार बजरंगी व एक लाख अन्य शिव भक्तों ने जय भोले की हुंकार भरते हुए उस दुर्गम यात्रा की ओर जब कूच किया तो उस यात्रा को रोकने का कोई आज तक दुस्साहस नहीं कर पाया। भगवान श्रीराम के आदेश पर नल व नील द्वारा दक्षिण में बनाए गए राम सेतु को तत्कालीन सरकार के हमले से बचाने हेतु भी विहिप ने एक बड़ा जन आन्दोलन खडा किया था। जब तत्कालीन केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में श्री राम के अस्तित्व को ही नकार दिया तो विहिप के मात्र चार घंटे के सफल देशव्यापी चक्का जाम ने सरकार को उसी दिन झुकने को मजबूर कर दिया। दिल्ली के स्वर्ण जयंती पार्क में उपस्थित लाखों राम भक्तों के सैलाब के आगे सरकारी जिद धरी रह गई।
    विहिप की युवा शाखा बजरंग दल तथा दुर्गा वाहिनी ने 1984 से लेकर आज तक देश-धर्म संस्कृति व राष्ट्र की रक्षार्थ सदैव अग्रणी भूमिका निभाई है। सेवा, सुरक्षा व संस्कार इनके मूल मंत्र रहे हैं। संस्कृत भाषा, वेद पाठशाला तथा संस्कारों की अभिवृद्धि हेतु भी विहिप ने अनेक कदम उठाए हैं।
    इतने सब के बावजूद हमारे समक्ष धर्मांतरण, लव जिहाद, सामाजिक समरसता, धर्म स्थलों को सुरक्षा व सरकारी अधिग्रहण से मुक्ति, संस्कृति व संस्कारों का क्षरण, धार्मिक शिक्षा व जागरूकता का अभाव, विदेशी घुसपैठ, जनसंख्या असंतुलन जैसी अनेक चुनौतियाँ सामने खड़ी हैं जिनका मुकाबला करते हुए हिन्दू समाज को इनसे मुक्ति दिलानी है।
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