- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने देश की मुख्य इस्लामिक पार्टी और उसके समूहों पर से प्रतिबंध हटाकर यह साफ संकेत दे दिया है कि उसके देश में गैर मुसलमानों पर अत्याचार होते रहेंगे। क्योंकि इस नई यूनुस सरकार को जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश का ‘आतंकवादी गतिविधियों’ में कोई भी संलिप्तता का सबूत नहीं मिला है। जबकि यह पूरा विश्व जानता है कि जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश वह मुख्य इस्लामी पार्टी है,जो कि मजहबी कट्टरपंथ और आतंक के लिए कुख्यात रही है। अब इस निर्णय से यह साफ हो गया है कि बांग्लादेश में 1971 के पहले के हालात फिर से हो जाने की संभावना है।
दरअसल, बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अनेक आतंकी गतिविधि, भारत विरोधी इस्लामिक जिहादी षड्यंत्र, गैर मुसलमानों खासकर हिन्दुओं के प्रति घृणा का भाव रखने एवं उन पर अत्याचार करने की कई घटनाओं के सामने आने के अलावा पाकिस्तान समर्थित होने के कारण से कभी जमात-ए-इस्लामी पार्टी पर प्रतिबंध लगाया था। इस जमात-ए-इस्लामी पार्टी पर हाई कोर्ट ने साल 2013 में चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया था। अब बंगाली में जारी अधिसूचना में कहा गया है कि इस संगठन से प्रतिबंध हटाया जा रहा है क्योंकि बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी और उसके संबद्ध संगठनों की ‘आतंकवाद और हिंसा’ के कृत्यों में संलिप्तता का कोई विशेष सबूत नहीं मिला है।
अंतरिम सरकार का मानना है कि बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी और उसके सहयोगी संगठन ‘किसी भी आतंकवादी गतिविधियों’ में शामिल नहीं हैं। किंतु इसके उलट बांग्लादेश में हाल ही में हुए तख्तापलट के बाद उपद्रवियों ने वहां हिंदुओं पर हमले किए,जो कि अभी भी कई जगह हो रहे हैं, उनमें सीधे और अप्रत्यक्ष रूप से इसी जमात-ए-इस्लामी पार्टी का हाथ है। लेकिन यह यूनुस सरकार को नहीं दिखाई दे रहा है।
2001 में भी जमात-ए-इस्लामी ने हिंदुओं पर बड़ा कहर बरपाया था : क्या यह पहली बार हुआ है? जब इस जमात-ए-इस्लामी से जुड़े लोगों ने हिन्दू विरोध और भारत विरोध का परिचय दिया है। भारत में जिस शांति से बहुसंख्यक हिन्दू समाज के सामने जमात-ए-इस्लामी दिखाई देती है, वही बांग्लादेश और पाकिस्तान में ये जमात-ए-इस्लामी जिहादी, कट्टरपंथी और आतंक का साथ देनेवाली, पाकिस्तान परस्त दिखाई देती है। यह वही जमाते इस्लामी बांग्लादेश है जो हमेशा से हिंदुओं की विरोध में हिंसा फैलाती रही और उसके कार्यकर्ता हिन्दू मंदिर, उनके घर और दुकानों को लूटते रहे हैं। पांच अगस्त के बाद से बांग्लादेश में हुई हिन्दू विरोधी हिंसा में मुख्य हाथ इसी जमाते इस्लामी का सामने आया, जिसे दुनिया ने देखा है।
भयंकर हैं इस संगठन के युद्ध अपराध
इससे पहले 2001 में भी जमाते इस्लामी ने हिंदुओं पर जबरदस्त कहर बरपाया था। उस वक्त भी बहुत बड़ी संख्या में हिन्दुओं का बांग्लादेश से पलायन हुआ था। कई लोगों की जान गई थीं। महिलाओं और बच्चियों के साथ भी जघन्य अपराध भयंकर हिंसा और बलात्कार की अनेकों घटनाएं घटी थीं। बांग्ला भाषा, संस्कृति और अपनी अस्िमता को लेकर जो संघर्ष पूर्वी पाकिस्तान में तत्कालीन समय 1971 के दौरान पश्चिमी पाकिस्तान से चला, उसमें ये संगठन जिहादी मानसिकता और इस्लामिक कट्टरवाद के कारण से वर्तमान पाकिस्तान के साथ खड़ा रहा था। इसने मुक्ति बाहिनी और भारतीय सेना के विरुद्ध षड्यंत्र रचे जो कि जगजाहिर हैं। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के साथ-साथ स्वतंत्र बांग्लादेश में इसकी भूमिका, तथा विश्व स्तर पर और दक्षिण एशिया में इसके नेताओं के युद्ध अपराध भयंकर रहे हैं, जिनमें कि अब इसके सभी नेताओं को मोहम्मद यूनुस सरकार ने मुक्ति दे दी है!
जमात-ए-इस्लामी का उद्देश्य है, भारतीय उपमहाद्वीप को इस्लामिक स्टेट बनाना : इसके इतिहास में जाएं तो जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1941 में अविभाजित भारत में मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी ने एक इस्लामी संगठन के रूप में की थी। जिसका कोई विश्वास धर्म निरपेक्ष सिद्धातों में कभी नहीं रहा। इसका एक ही उद्देश्य है इस्लामी मूल्यों के अनुसार समाज निर्माण। इसके लिए जमात-ए-इस्लामी को राजनीतिक पॉवर की आवश्यकता महसूस हुई, लेकिन जब भारत का विभाजन हो गया तो उसका संपूर्ण भारत को इस्लामिक स्टेट बनाने का सपना अधूरा रह गया। इसलिए, समय के साथ, इसने अपने को एक जटिल सामाजिक और साथ ही राजनीतिक संगठन के रूप में विकसित किया ।
भारत में बहुसंख्यक हिन्दू समाज होने के कारण से यह शरिया कानून लागू करने में असफल रहा है, किंतु बहुत हद तक पाकिस्तान में इसे इस्लामिक नियमों में बंधकर चलने और शरिया लागू करने में इसे सफलता मिली। यही सफलता वह बांग्लादेश में चाहता है। अभी तक शेख हसीना जैसा राज्य बांग्लादेश में चला रही थीं, उसे ये संगठन इस्लाम के विरुद्ध ‘हराम’ (‘निषिद्ध’) मानता रहा है। अब जब इसे यूनुस सरकार ने क्लीन चिट दे दी है तब फिर से यह संगठन कोशिश करेगा कि कैसे यहां तालीबानी शासन लाकर शरिया की पूर्णत: स्थापना की जा सकती है।
जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश का पाकिस्तान के साथ खड़े रहने का इतिहास पुराना है : यहां सबसे बड़ी बात यह है कि अभी तक जमात-ए-इस्लामी ने एकीकृत मुस्लिम राज्य के अपने सपने को नहीं छोड़ा है। दोनों देशों (पाकिस्तान-बांग्लादेश) में इस संगठन की दो अलग-अलग शाखाएं स्थापित हैं जो कि शेख हसीना के तख्ता पलट के दौरान एक जुट होकर आईएसआई के नेतृत्व में कार्य करती देखी गईं। जिसके साक्ष्य पिछले दिनों कई खुफिया एजेंसियों ने भी दिए। पहले भी जब यह बांग्लादेश में 1970 के पूर्व सक्रिय था, तब भी यह संगठन पाकिस्तान के साथ खड़ा था। जब पाकिस्तान सरकार से मांग की गई थी कि पूर्वी पाकिस्तान बंगाली भाषी है, इसलिए उस पर उर्दू न थोपी जाए, तब इसने बांग्ला भाषा का समर्थन न करते हुए उर्दू का ही साथ दिया था। हालांकि बांग्ला भाषा को पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में राष्ट्रीय भाषा बनाए जाने को लेकर आन्दोलन चला।
उर्दू के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया। यह विरोध, जो शुरू में एक भाषा आंदोलन के रूप में आरंभ हुआ था, आगे 1970 में चुनाव के बाद बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के रूप में सामने आया। नेता शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान के राष्ट्रवादी आंदोलन ने पश्चिमी पाकिस्तान सरकार को स्वतंत्र चुनाव कराने के लिए मजबूर किया था। आवामी लीग ने यह चुनाव जीता, लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान ने उसे सत्ता से वंचित रखा। वैध रूप से चुनी गई सरकार के वैध अधिकारों के इस हनन ने मार्च 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को जन्म दिया। तब अपनी स्वाधीनता और अस्िमता के लिए पश्िचमी पाकिस्तान के साथ वर्तमान बांग्लादेश का युद्ध नौ महीने तक जारी रहा जब तक कि 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश को अपनी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हुई।
इस युद्ध के दौरान जमात-ए-इस्लामी की जो भूमिका सामने आई वह इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान के साथ खड़े रहने की थी। उसके लिए बांग्ला भाषा, कला-संस्कृति से कहीं अधिक शरिया कानून, इस्लाम की सत्ता होने के मायने रहे जो कि पाकिस्तान की मानसिकता से मैच खाते हैं, इसलिए यहां जमात-ए-इस्लामी ने मुक्ति युद्ध के प्रति अपना सकारात्मक रुख नहीं रखा। पल-पल पर इस संगठन के लोगों ने पाकिस्तान का साथ निभाया। कहने का तात्पर्य है कि बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी के सदस्यों ने बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) के स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ अपने प्रयासों में पाकिस्तानी सेना को पूर्ण समर्थन प्रदान किया।
मुक्तिवाहिनी के विरोध में जमात-ए-इस्लामी ने दिया था पाकिस्तानी सेना का साथ : बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के दौरान मुक्तिवाहिनी का गठन पाकिस्तान सेना के अत्याचार के विरोध में किया गया था। 1969 में पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक शासक जनरल अयूब के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष बढ़ गया था और बांग्लादेश के संस्थापक नेता शेख मुजीबुर रहमान के आंदोलन के दौरान 1970 में यह अपने चरम पर था। मुक्ति वाहिनी एक छापामार संगठन था, जो पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहा था। मुक्ति वाहिनी को भारतीय सेना ने समर्थन दिया था। ये पूर्वी पाकिस्तान के लिए बहुत बुरा समय था। लेकिन जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश पर यह आरोप लगता रहा है कि इसने शेख मुजीबुर रहमान के आंदोलन का साथ कभी नहीं दिया। बल्िक पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर अपने ही पूर्वी पाकिस्तानी भाइयों और बहनों के खिलाफ युद्ध अपराध करने में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनकी गतिविधियों में सैकड़ों हजारों गैर-लड़ाकू पूर्वी पाकिस्तानियों की हत्या करना, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, पूर्वी पाकिस्तानी महिलाओं (विशेष रूप से गैर-मुस्लिम हिन्दू महिलाओं) के साथ बलात्कार करना, विद्वानों, डॉक्टरों, वैज्ञानिकों आदि का अपहरण करना और उनकी हत्या करना शामिल रहा था।