December 23, 2024 8:49 PM

Trending News

December 23, 2024 8:49 PM

लोकतंत्र में शक्ति सम्पन्न शासन के बजाय लुंज पुंज राज से पतन

Ad Zone

Ad Zone

Ad Zone

  • आलोक मेहता
    कल्पना कीजिये कौन अपने परिवार का मुखिया कमजोर, बीमार और बैसाखियों के सहारे देखना चाहेगा? कौन घर में शारीरिक रुप से कमजोर बच्चे या दामाद अथवा बहू होने की प्रार्थना करेगा? भारत को पोलियो से मुक्त होने का गौरव हो सकता है, तो देश में एक मजबूत प्रधानमंत्री और सरकार होने पर गौरव के साथ खुशी क्यों नहीं हो सकती है? लेकिन इन दिनों राजनीति के अलावा भी कुछ लोग हैं, जो कमजोर और गठबंधन की सरकार की तमन्ना के साथ वैसी स्थिति के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। इसका एक कारण लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेना पड़ रहा है। सरकार के कुछ निर्णयों को संसद में तत्काल पारित कर लागू करने के बजाय संसदीय समिति आदि से विस्तृत विचार और जरुरत होने पर संशोधन के लिए रख दिया गया। लेकिन इस रुख से प्रधानमंत्री को कमजोर तथा सरकार पांच साल नहीं चल सकने के दावे करके देश विदेश में भ्रम पैदा किया जा रहा है। जबकि अब लोकसभा और राज्य सभा में भी पर्याप्त बहुमत होने से सरकार महत्वपूर्ण विधेयक पारित करवा सकेगी। संविधान में बड़ा संशोधन किए बिना सरकार सामाजिक आर्थिक और सामरिक क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर क्रान्तिकारी बदलाव के फैसले संसद से पारित कर लागू कर सकती है।
    प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सरकारों के कार्यकाल का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो यह साबित हो सकता है कि इंदिरा गांधी और नरेंद्रमोदी ने सर्वाधिक साहसिक फैसले किए। पहला परमाणु परीक्षण हो या बैंकों और कोल्ा् इंडिया का राष्ट्रीयकरण या 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद बांग्ला देश का निर्माण, क्या कमजोर नेतृत्व की सरकार से संभव था। उन निर्णयों को गलत कहने वाले लोग रहे हैं। हां इमरजेंसीं बहुत बड़ी राजनीतिक गलती थी,लेकिन यह प्रधानमंत्री के कमजोर होने की परिणिति थी। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी, जम्मू कश्मीर से धारा 370 ख़त्म करने, तलाक व्यवस्था विरोधी कानून, संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान का आरक्षण, ब्रिटिश राज के काले कानूनों के बजाय नई न्याय संहिता लागू करने जैसे क्रान्तिकारी बदलाव अपने दृढ़ संकल्प और पर्याप्त बहुमत के बल पर किए। आजादी के बाद कोई प्रधानमंत्री इतने बड़े कदम नहीं उठा सके। इससे पहले 1967 (इंदिरा गांधी), 1977 – 1979 (मोरारजी देसाई और चरण सिंह), 1989- 1991 (वी पी सिंह, चंद्रशेखर), फिर 1999 तक नरसिंहा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एच डी देवेगौड़ा इंद्रकुमार गुजराल तक की कमजोर सरकारों से कोई बड़े निर्णय नहीं हो सके। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की गठबंधन की सरकारों में खींचातानी, घोटालों की मजबूरियों से न केवल राजनीतिक पतन बल्कि आर्थिक विकास में कठिनाइयां आई। गठबंधन के कारण वाजपेयी और मनमोहन सिंह को कई क्षेत्रीय नेताओं के दबाव और भ्रष्टाचार को झेलना पड़ा। इसे राजनीतिक चमत्कार ही कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के दस वर्षों के कार्यकाल में किसी एक मंत्री के विरुद्ध घोटाले का कोई प्रामाणिक आरोप सामने नहीं आ सका। राहुल गांधी या अन्य विरोधी नेता सरकार पर अनेक आरोप लगाते रहे, फिर भी जनता ने तीसरी बार मोदी की सरकार बनवा दी।
    केंद्र से अधिक राज्यों में कमजोर मुख्यमंत्रियों तथा दल बदल की अस्थिर सरकारों से राजनीति से अधिक नुकसान सामाजिक और आर्थिक विकास में हुआ। दिलचस्प बात यह है कि 1956 में केरल से दलबदल की शुरुआत हुई और बहुमत वाली कांग्रेस को धक्का लगा। इसके बाद तो केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों, मुस्लिम लीग और स्थानीय पार्टियों के गठबंधन की सरकारों तथा कांग्रेस गठबंधन की दोस्ती दुश्मनी का खेल चलता रहा। वह आज भी जारी है। राज्य और केंद्र में दोनों के चेहरे या मुखौटे अलग- अलग हैं। पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता के लिए भ्रम जाल ही कहा जा सकता है। हाल के चुनाव में भी राहुल गांधी के विरुद्ध मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उम्मीदवार खड़ा किया, पश्चिम बंगाल में भी यही किया। जबकि केंद्र के लिए बने कथित गठबंधन में साथ रणनीति बनाते रहे। दुनिया में ऐसा राजनीतिक मजाक और धोखा शायद ही देखने को मिले। उनके लिए सत्ता का खेल है, लेकिन इस तरह की स्थितियों से केरल अन्य पडोसी दक्षिण के राज्यों से आर्थिक विकास में पिछड़ता गया। साक्षरता में अग्रणी और योग्य लोगों को बड़ी संख्या में खाड़ी के देशों में नौकरी तथा अन्य काम धंधों के लिए दुनिया भर में जाना पड़ा। यही स्थिति पश्चिम बंगाल में हुई, जहां कांग्रेस, कम्युनिस्ट, माओवादी, तृणमूल कांग्रेस के माया जाल से सत्तर के दशक तक रहे उधोग धंधे भी बर्बाद हुए और टाटा बिड़ला जैसे उद्योगपति तक अपने उद्योग अन्य राज्यों में ले गए।
    पड़ोसी बिहार और झारखण्ड भी दलबदल, जोड़ तोड़, भ्रष्टाचार, कमजोर मुख्यमंत्रियों और अस्थिर सरकारों से आर्थिक विकास में पिछड़ता गया। भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर से नीतीश कुमार तक या कांग्रेस के भागवत झा जैसे ईमानदार मुख्यमंत्रियों को अधिक समय टिकने नहीं देने का नुकसान समाज को हुआ। यह बात जरुर है कि नीतीश कुमार को लगातार जन समर्थन मिला, लेकिन उन्हें अन्य दलों और भ्रष्टतम आरोपी लालू यादव जैसे नेताओं तक का सहारा भी लेना पड़ा। आदिवासियों के लिए संघर्ष से बने झारखण्ड की दुर्गति सबको दिख रही है। उत्तर प्रदेश में 1967 के बाद दल बदल से कई बार अस्थिर सरकारें और कमजोर मुख्यमंत्री रहे। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने कमलापति त्रिपाठी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी जैसे नेताओं को कभी मुख्यमंत्री बनाया, कभी हटाया। सो अब तक राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही नहीं अपने किसी मुख्यमंत्री को मजबूत नहीं देखना चाहते। राजस्थान में अशोक गेहलोत, मध्यप्रदेश में कमलनाथ या उससे पहले ईमानदार मोतीलाल वोरा, पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह, हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मजबूत नहीं होने देने के लिए अपने विधायकों को शह देते रहे। तमिलनाडु गठबंधन की राजनीति से लगातार प्रभावित रहा। पूर्वोत्तर के छोटे राज्य अब थोड़ी राहत पाकर आर्थिक प्रगति कर रहे हैं। अन्यथा अस्थिरता और भ्र्ाष्टाचार से बेहद क्षति हुई। आश्चर्य यह है कि इस असलियत को देखने जानने वाले लोग भी केंद्र और राज्यों में अस्िथर गठबंधन की कमजोर सरकारों और मुख्यमंत्रियों को लाने की दुहाई दे रहे हैं।
Share on facebook
Share on twitter
Share on linkedin
Share on whatsapp
Share on telegram
Share on pocket

Recent News

Ad Zone