तकनीकी युग में किशोरों पर पड़ रहा नकारात्मक प्रभाव, सरकार भी असहाय: न्यायालय
इलाहाबाद हाईकोर्ट की चेतावनी: सोशल मीडिया और टीवी से किशोरों की मासूमियत छीन रही तकनीक
प्रयागराज। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने किशोरों पर आधुनिक तकनीकी माध्यमों — जैसे टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया — के दुष्प्रभावों को लेकर गहरी चिंता जाहिर की है। अदालत ने इन माध्यमों को किशोरावस्था की मासूमियत खत्म करने वाला बताया और कहा कि इनकी अनियंत्रित प्रकृति के सामने सरकार भी लगभग असहाय है।
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ ने यह टिप्पणी एक किशोर द्वारा दायर आपराधिक पुनरीक्षण याचिका की सुनवाई के दौरान की। यह याचिका किशोर न्याय बोर्ड और कौशाम्बी स्थित पॉक्सो (POCSO) न्यायालय के आदेश को चुनौती देने हेतु दायर की गई थी, जिसमें एक नाबालिग पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने का आदेश दिया गया था।

कोर्ट की स्पष्ट टिप्पणी: किशोर ‘शिकारी’ नहीं, वयस्क जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि रिकॉर्ड में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे यह प्रतीत हो कि आरोपी किशोर ने किसी प्रकार की पूर्व नियोजित हिंसा की या वह अपराध दोहराने की प्रवृत्ति रखता है। अदालत ने यह भी कहा कि महज यह मान लेना कि किसी किशोर ने गंभीर अपराध किया है, उसे वयस्क के समकक्ष नहीं ठहराया जा सकता।
कोर्ट का आदेश: पुनरीक्षणकर्ता पर किशोर न्याय बोर्ड द्वारा एक किशोर के रूप में मुकदमा चलाया जाए, न कि वयस्क के रूप में।
मासूमियत पर हमला कर रही आधुनिक तकनीक
कोर्ट ने कहा कि “टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे माध्यम आज की पीढ़ी की मासूमियत को बहुत कम उम्र में ही छीन रहे हैं।” बच्चों की मानसिकता और व्यवहार पर इन माध्यमों का प्रभाव अत्यंत गहरा होता है, और कई बार वे बिना पूरी समझ के जोखिमभरे निर्णय ले लेते हैं।
न्यायालय ने यह भी कहा कि सरकार भी इन तकनीकों की ‘अनियंत्रित’ प्रकृति के कारण इनके असर को रोक पाने में असमर्थ प्रतीत होती है।

किशोर न्याय अधिनियम के सिद्धांतों पर जोर
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ ने अपने निर्णय में ‘किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015’ के उद्देश्यों को रेखांकित किया और कहा कि इस अधिनियम का मकसद पुनर्वास और सुधार है, न कि दंड। यदि किशोर को वयस्क के रूप में मुकदमे का सामना करना पड़े, तो यह उसके जीवन पर स्थायी और नकारात्मक असर डाल सकता है।
बदलते सामाजिक संदर्भ में कानून की भूमिका
यह मामला केवल एक किशोर पर मुकदमे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समाज में किशोरों की मानसिकता, उनके सामने मौजूद तकनीकी और सामाजिक दबावों, और न्यायपालिका की भूमिका को भी दर्शाता है।
न्यायालय की यह टिप्पणी इस दिशा में गंभीर चिंतन की मांग करती है कि किस प्रकार तेजी से बदलती डिजिटल दुनिया में नवयुवकों की मानसिकता और मूल्यों की रक्षा की जाए।
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