October 15, 2025 8:56 PM

प्रधान न्यायाधीश पर जूता फेंकने वाले वकील के खिलाफ अवमानना कार्रवाई की मांग, अटॉर्नी जनरल को भेजा गया पत्र

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प्रधान न्यायाधीश पर जूता फेंकने वाले वकील के खिलाफ अवमानना कार्रवाई की मांग, अटॉर्नी जनरल को भेजा गया पत्र

नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय में हाल ही में हुई एक अभूतपूर्व घटना के बाद अब मामला कोर्ट की अवमानना तक पहुंच गया है। प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई पर जूता फेंकने वाले वकील राकेश किशोर के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग उठी है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील सुभाष चंद्रन के.आर. ने अटॉर्नी जनरल आर. वेकटरमणी को पत्र लिखकर इस घटना को अदालत की गरिमा के खिलाफ बताया और कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, 1971 के तहत अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की अनुमति मांगी है।


घटना: 6 अक्टूबर को कोर्ट रूम में फेंका गया जूता

यह घटना 6 अक्टूबर की है, जब सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान वकील राकेश किशोर ने प्रधान न्यायाधीश गवई की ओर जूता फेंकने की कोशिश की। कोर्ट रूम में मौजूद दिल्ली पुलिस के कॉन्स्टेबल ने तुरंत सतर्कता दिखाते हुए उन्हें पकड़ लिया और बाहर ले जाया गया।

जब पुलिस कर्मी उन्हें कोर्ट रूम से बाहर ले जा रहे थे, तो उन्होंने जोर से कहा—

“सनातन धर्म का अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान।”

घटना से अदालत में उपस्थित न्यायाधीशों, वकीलों और कर्मियों में स्तब्धता और आक्रोश दोनों देखने को मिला।


प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी से आहत था आरोपी वकील

जानकारी के अनुसार, 71 वर्षीय वकील राकेश किशोर न्यायालय में लंबे समय से प्रैक्टिस कर रहे हैं। वह कथित तौर पर प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई की एक पुरानी टिप्पणी से आहत थे, जिसमें उन्होंने एक मामले की सुनवाई के दौरान भगवान विष्णु से संबंधित कथन किया था।

वकील राकेश किशोर ने उसी टिप्पणी को लेकर आपत्ति जताई थी और इस घटना के माध्यम से अपनी नाराज़गी प्रकट की।


वकील सुभाष चंद्रन ने मांगी अवमानना की मंजूरी

वकील सुभाष चंद्रन केआर ने अटॉर्नी जनरल को भेजे पत्र में लिखा कि—

“यह घटना न केवल न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचाती है, बल्कि यह न्यायपालिका के प्रति सार्वजनिक विश्वास को कमजोर करने का प्रयास भी है। अदालत के भीतर इस तरह का कृत्य किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।”

उन्होंने कहा कि कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, 1971 की धारा 15 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में अवमानना की कार्यवाही केवल अटॉर्नी जनरल या सॉलिसीटर जनरल की अनुमति से ही शुरू की जा सकती है। इसलिए उन्होंने मांग की है कि इस मामले में तुरंत सहमति प्रदान कर उचित कार्रवाई शुरू की जाए।


कानूनी रूप से ‘कोर्ट की अवमानना’ क्या है?

कानून के अनुसार, कोर्ट की अवमानना (Contempt of Court) वह कृत्य है जिससे अदालत की गरिमा, स्वतंत्रता या निष्पक्षता पर आंच आती हो। इसमें दो प्रकार की अवमानना मानी जाती है—

  1. नागरिक अवमानना (Civil Contempt) – जब अदालत के आदेशों या निर्देशों की अवहेलना की जाती है।
  2. दंडनीय अवमानना (Criminal Contempt) – जब अदालत के अधिकार, न्यायिक कार्य या न्याय के प्रशासन में बाधा डाली जाती है या अपमानजनक व्यवहार किया जाता है।

राकेश किशोर द्वारा किया गया यह कृत्य दंडनीय अवमानना की श्रेणी में आता है, क्योंकि उन्होंने न्यायालय कक्ष में प्रधान न्यायाधीश पर हमला करने की कोशिश की, जो न्यायिक गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला कृत्य है।


सुप्रीम कोर्ट में पहले भी हुई हैं ऐसी घटनाएँ

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय में इस तरह की घटनाएँ बहुत दुर्लभ हैं, लेकिन यह पहली बार नहीं है जब किसी ने कोर्ट की मर्यादा का उल्लंघन किया हो। अतीत में भी कुछ मामलों में लोगों द्वारा अपमानजनक टिप्पणी या व्यवहार पर अदालत ने सुओ मोटू अवमानना कार्रवाई शुरू की थी।

कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यदि अटॉर्नी जनरल इस मामले में सहमति देते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट स्वयं इस मामले में संज्ञान लेकर सुनवाई कर सकता है और दोष सिद्ध होने पर संबंधित व्यक्ति को जुर्माना या कारावास की सजा दी जा सकती है।


न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा का सवाल

वकील समुदाय में इस घटना को लेकर कड़ी निंदा की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के कुछ वरिष्ठ सदस्यों ने कहा कि यह न केवल एक व्यक्ति का अनुशासनहीन व्यवहार है, बल्कि यह पूरे वकील समुदाय की प्रतिष्ठा पर धब्बा है।

उन्होंने कहा कि अदालत लोकतंत्र का सबसे पवित्र संस्थान है, और उसकी गरिमा बनाए रखना हर नागरिक, खासकर वकीलों की जिम्मेदारी है।


अब आगे क्या?

अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि अटॉर्नी जनरल आर. वेकटरमणी इस पत्र पर क्या निर्णय लेते हैं। यदि वे सहमति देते हैं, तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट में औपचारिक रूप से दायर किया जाएगा और अवमानना की कार्यवाही शुरू की जाएगी।

कानूनी जानकारों का कहना है कि यह घटना न्यायिक प्रणाली की मर्यादा की परीक्षा है, और अदालत इसे कठोर संदेश के रूप में ले सकती है ताकि भविष्य में कोई व्यक्ति न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुँचाने का दुस्साहस न करे।



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