- श्रीराम स्वयं मुनि के समीप जा पहुंचे। सुतीक्ष्ण मुनि उन्हें देखकर भावविभोर हो गए, और भावुकता में बेहोश हो गए
अयोध्या से वन तक की यात्रा में, श्रीराम ने जहां-जहां कदम रखे, वहां केवल धर्म ही नहीं, मानवीय संवेदनाओं की मिसालें भी स्थापित कीं। ऐसा ही एक प्रेरक प्रसंग है सुतीक्ष्ण मुनि से भेंट का, जो आज के दौर में भी रिश्तों की नींव को मजबूत करने का मार्ग दिखाता है।
संकोच में डूबे भक्त, प्रतीक्षा में बीते पल
ऋषि सुतीक्ष्ण, महर्षि अगस्त्य के शिष्य थे। उन्हें जब ज्ञात हुआ कि श्रीराम उनके आश्रम की ओर आ रहे हैं, तो हर्ष से भर उठे, लेकिन साथ ही उनके मन में संकोच की लहरें उठने लगीं। वे सोचने लगे — क्या मैं इस योग्य हूं कि स्वयं प्रभु से मिलने जाऊं? क्या मेरी भक्ति इतनी पवित्र है? यही आत्मसंकोच उन्हें रोकता रहा।
श्रीराम ने समझा मन का भाव, बढ़ाया पहला कदम
श्रीराम ने जब मुनि को एक वृक्ष के नीचे आनंद में झूमते देखा, तो वे समझ गए कि ये उनके प्रेम में डूबे हैं, लेकिन संकोच उन्हें रोक रहा है। बिना कोई विलंब किए, श्रीराम स्वयं मुनि के समीप जा पहुंचे। सुतीक्ष्ण मुनि उन्हें देखकर भावविभोर हो गए, और भावुकता में बेहोश हो गए। जब होश आया, तो बोले— “आप जैसे महापुरुष मेरे जैसे साधारण व्यक्ति से मिलने स्वयं आ गए?” श्रीराम ने उत्तर दिया— “इस संसार में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। मैं इसलिए आया हूं ताकि तुम अपने मन के संकोच को त्याग सको। अगर प्रेम सच्चा हो, तो पहला कदम उठाने में झिझक क्यों?”
इस प्रसंग से क्या सीखें हम?
- विनम्रता ही सच्ची महानता है
श्रीराम जैसे राजकुमार और मर्यादा पुरुषोत्तम ने यह दिखाया कि पद या प्रतिष्ठा कभी अहंकार का कारण नहीं बननी चाहिए। वे स्वयं चलकर एक संकोच में डूबे मुनि से मिलने पहुंचे — यही उनका बड़प्पन है। - पहल वही करता है जो संबंधों को निभाना जानता है
रिश्ते संकोच में नहीं, संवाद में फलते हैं। चाहे संबंध पारिवारिक हों या सामाजिक — यदि हम खुद पहल नहीं करेंगे, तो दूरी बढ़ती जाएगी। श्रीराम की तरह हमें भी पहले कदम बढ़ाने का साहस रखना चाहिए।
- भेदभाव नहीं, समता ही धर्म है
श्रीराम का व्यवहार दिखाता है कि सच्ची भक्ति और संबंध समानता से निभते हैं, न कि पद, धन या ज्ञान के आधार पर श्रेष्ठता के दंभ से।
- भावनाओं की पहचान और सम्मान
श्रीराम ने मुनि के भावों को बिना कहे समझा और उसी के अनुरूप व्यवहार किया। यही संवेदनशीलता जीवन को सहज और सम्मानित बनाती है। आज के संदर्भ में यह कथा हमें सिखाती है कि आत्मगौरव और विनम्रता साथ-साथ चल सकते हैं। संकोच, दूरी और भेदभाव को पीछे छोड़कर यदि हम प्रेम और संवाद को प्राथमिकता दें, तो जीवन अधिक मधुर और सार्थक बन सकता है।