- रमेश शर्मा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में 1857 की क्रान्ति को सब जानते हैं। यह एक ऐसा सशस्त्र संघर्ष था जो पूरे देश में एक साथ हुआ । इसमें सैनिकों और स्वाभिमान सम्पन्न रियासतों ने हिस्सा लिया । असंख्य प्राणों की आहूतियाँ हुईं थी। इस संघर्ष का सूत्रपात करने वाले स्वाभिमानी सिपाही मंगल पाण्डेय थे । अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिये न केवल गाय की चर्बी वाले कारतूस लेने से इंकार किया अपितु दो अंग्रेज सैन्य अघिकारियों को गोली भी मार दी।
मंगल पाण्डेय 1849 में 22 वर्ष की आयु में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना मे बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की 34 वीं बटालियन में भर्ती हो गए । और प्रशिक्षण के बाद बंगाल भेज दिये गये।
इस बंगाल नेटिव इन्फ्रेन्ट्री अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाले विद्रोह को दबाने में लगाया गया था।
इस बीच उन्हें असम और बिहार के वनवासी क्षेत्रों में भेजा गया। अपनी विभिन्न पदस्थापना में उन्होंने अंग्रेज अफसरों का भारतीयों के प्रति शोषण और अपमान जनक व्यवहार को देखा था इससे उनके मन में अंग्रेजों के प्रति एक गुस्सा बढ़ता जा रहा था । उनकी इन्फ्रेन्ट्री का केन्द्र बंगाल का बैरकपुर था । बीच बीच में बैरकपुर आते थे । तभी नये कारतूसों को लेकर चर्चा चली।
यह बात प्रचारित हुई कि इन कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी है । यह एनफ़ील्ड बंदूक थी जो 1853 में सिपाहियों के लिये आई थी। लेकिन दो तीन साल स्टोर में पड़ी रही और 1856 में सिपाहियों को दी गई। यह 0.557 कैलीबर की इंफील्ड बंदूक थी । इससे पहले ब्राउन बैस बंदूक सिपाहियों के पास थी जो बहुत पुरानी हो चुकी थी । इसे बदलकर नयी बंदूक दी गई थी जो मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी।
नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली प्रिकशन कैप का प्रयोग किया जाता था । परन्तु इस नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था।
कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी। इस बात को लेकर सिपाहियों में असंतोष उभरने लगा । तथा इन कारतूस का उपयोग न करने का वातावरण बनने लगा। सिपाहियों ने अपनी समस्या से अंग्रेज अधिकारियों को अवगत कराया पर अधिकारियों ने इसका समस्या का समाधान निकालने के बजाय उन सैनिकों पर कार्रवाई करने का निर्णय लिया जो इन कारतूसों के प्रति वातावरण बना रहे थे।
इसमें मंगल पाण्डेय का नाम सबसे ऊपर पाया गया। उन्होंने इन कारतूसों को लेने इंकार कर दिया। इसलिये अधिकारियों ने मंगल पांडेय को दण्ड देकर रास्ते पर लाने का निर्णय लिया। मंगल पाण्डेय को पहले एक बैरक में बंद करके बेंत मारने की सजा दी गई। मंगल पाण्डेय ने मन ही मन कुछ निर्णय किया और कारतूस लेने की सहमति दे दी तब उन्हें पुनः काम पर बहाल करने का निर्णय हुआ। तब 29 मार्च 1857 को बैरकपुर परेड मैदान में परेड का आयोजन हुआ।
जनरल ने अनेक धमकियां दीं और लालच भी दिये तब शेख पलटु नामक एक सिपाही आगे आया। तब मंगल पाण्डेय ने पल्टन से विद्रोह करने का आव्हान किया पर इसके लिये किसी सिपाही का साहस न हुआ।
परिस्थिति देखकर मंगल पाण्डेय ने स्वयं अपनी बंदूक से अपना बलिदान करने का विचार बनाया किन्तु वे घायल भर हुये । यहां इतिहास अलग-अलग पुस्तकों में अलग-अलग विवरण हैं।
कुछ पुस्तकों में उनके घायल होने का कारण शेख पलटू द्वारा चलाई गई गोली थी जबकि कुछ ने स्वयं मंगल पाण्डेय द्वारा आत्म बलिदान करने का प्रयास लिखा है। जो हो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया 6 अप्रैल 1857 को कोर्ट मार्शल हुआ । उन्हे मृत्युदंड मिला । इसके लिये 18 अप्रैल 1857 की तिथि निर्धारित की गई। किन्तु इससे दस दिन पहले 8 अप्रैल 1857 को ही उन्हें फांसी दे दी गई।